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________________ २८३ कर्म किये है उनका फल हम इस समय चख रहे है और अब जो कर रहे है उनके फल आगे भोगना पड़ेंगे। किसान---आपने जैसा कहा वैसा ही होगा। परन्तु ऐसे घमंडी और दुष्ट मनुष्य हम सरीखे गरीबोंको जो इस तरह बिना कुछ लिये दिये ही तग किया करते है, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए ? श्रमण-भाई, मेरी समझमें तो तेरे विचार भी लगभग उसी सेठ ही सरीखे है। जिस कर्मसे आज वह जौहरी और तू किसान हुआ है, यद्यपि ऊपरसे उस कर्ममे बहुत भिन्नता मालूम पड़ती है परन्तु भीतरी दृष्टिसे देखा जाय तो वह उतनी नहीं है। जहाँ तक मुझे मनुष्यके मानसिक विचारोंकी जॉच है उसके अनुसार मैं कह सकता हूँ कि आज यदि तू भी उस जौहरीकी जगह होता तथा तेरे पास भी उसके नौकरके जैसा बलवान् नौकर होता और जिस तरह तेरी गाड़ीसे उसका रास्ता रुक रहा था उसी तरह यदि उसकी गाड़ी तेरा रास्ता रोकती, तो तू भी उसका नम्बर लिये बिना न रहता। उसके चावलों का सत्यानाश हो जायगा, इसकी तुझे भी कुछ परवा न होती और इस बातको भी तू भूल जाता कि मैं किसीका बुरा करूँगा तो मेरा भी बुरा होगा। किसान-महाराज, आप सच कहते है। मेरी चेल, तो मैं उससे कुछ कम न रहूं। परन्तु आप तो अकारण वन्धु है; बिना स्वार्थके. आपने मेरी सहायता की, मेरे मालको विगडनेसे बचाया और मेरा काम शीघ्रतासे पूरा करके मुझे रास्ते लगा दिया। यह देखकर मेरा जी चाहता है कि मैं भी अपने जातिभाइयोके साथ अच्छा वर्ताव करूँ और अपनी शक्तिके अनुसार उनकी भलाई करने में तत्पर रहूँ। किसानकी गाडी दुरुस्त होकर आगे चलने लगी। वह थोड़ी ही दूर आगे बढ़ी थी कि एकाएक उसके बैल चमक उठे। किसान
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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