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________________ २८२ सेठने श्रमणकी इस मार्मिक जपिर लगान न दिया। उसने सोचा कि श्रमण सीमासे अधिक भार ना लिए इसकी भाई करनेके लिए तत्पर होता है । इसके बाद उसकी गादी आगे कर दी। श्रमण नारद किसानको नमस्कार करके उसकी गादगे टॉक करानेमें और भीगे हुए चावलंगको जुदा करके शेष चारॉफ एफ फरनेमें सहायता देने लगे। दोनोके परिश्रमने काम बात शीवतार होने लगा । किसान सोचने लगा कि सचमुच ही यह अमग कोर बड़ा परोपकारी महात्मा हो क्या आर्य है.जो मेरे भाग्यमे कोई रहदप देव ही श्रमणके वेपमें मेरी सहायताके लिए आया हो। मेरा काम इतनी जल्दी हो रहा है कि मुझे स्वय ही आचर्य माश्म होता है । उसने डरते डरते पूछा-श्रमण महाराज, जहाँतक मुझे याद है में जानता है कि इस सेठकी मैंने कभी कोई बुराई नहीं की, कोई इसे हानि भी नहीं पहुंचाई, तब आज इसने मुझपर यह अन्याय क्यों किया ? इसका कारण क्या होगा ? श्रमण-भाई, इस समय जो कुछ तू भोग रहा है, तो सब तेरे किये हुए पूर्व कर्मोंका फल है। पहले जो बोया था उसे ही अब लुन रहा है। किसान-कर्म क्या ? श्रमण-मोटी नजरसे देखा जाय तो मनुष्यके काम ही उसके कर्म है । वे ( मनुष्यके कर्म ) उसके इस जन्मके और पहले जन्मोंके किये हुए कामोंकी एक माला है । इस मालाके 'मनका रूप जो विविध प्रकारके कर्म हैं, उनमे वर्तमानके कामोंसे और विचारोंसे फेरफार भी बहुत कुछ हो जाता है। हम सबने पहले जो भले बुरे
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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