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________________ 'हार्दिक समुद्रने अरवसे विन्ध्याचल तकको अपनी लहरोंसे इवो दिया था । यही सच्ची आग योरपमें उस समय निकली थी, जब वहाँके निवासी अपने कर्तव्यज्ञानसे शून्य हो चुके थे और उनमें निर्जीवता आगई थी। तब वहाँके जगल और पहाड़ोंमें भटकनेवाला एक मनुष्य -वस्तीमें आगया और उसने वह कूक ससारमे मचा दी जो सूलीकी तीखी नोकको भेदती हुई आज तक सुनाई दे रही है। इस महात्मा क्राइस्टके पौगलिक शरीरका सूलीके ऊपर ही परिवर्तन होगया पर वह वीर नहीं है जो मुर्दे में भी जान न डाल दे। क्राइस्टके स्पर्शसे -वह शूली आज एक तिहाई ससारकी प्रिय होगई है और अपने गलेमें डालके हजारों मनुष्य उसी क्रॉससे अपना परिचय देते हैं। भारतवर्पमें जिस समय यज्ञोंमें जीवोंका हवन होता था उस समय भी एक पहाडकी खोहमें सोनेवाला पुरुप जाग उठा था और उसकी "बुद्धोऽहं" की आवाज पर ससार चकित होगया था। उस समय उसका कोई सहायक नहीं था,किन्तु वह कर्मवीर था। उसकी अवाजसे पाखडियोंके घटाटोप जाल टूट गये, उसका स्वागत करनेके लिए प्रकृतिने उसके गमनका मार्ग साफ कर दिया और पक्षियोंने उसके जानेसे पहले ही उसके शब्दोंको पहुँचाया, नदियाँ उसीका गान गाने लगी और आज भी उसकी जीती जागती वाणी ससारके अधिकाश मनुष्योंमें भिद रही है। __ ससारमें समय समय पर ये कर्मवीर आये और अपना अपना काम करके चले गये। जो रोनेवाले हैं वे अपना रोना लिए बैठे ही रहे और जो आलसी थे वे पडे पड़े मिट्टी हो गये, आज ससार नहीं जानता कि वे कहॉ हुए थे और क्यों हुए थे? यदि तुम कुछ चाहते हो तो अपने मनसे चाहनाको निकाल डालो और संसारको अपने सामने
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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