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________________ २२७ है-उसके सिद्धान्त बहुत ही उच्चश्रेणीके है, परन्तु गुरुओंके अभावसे उनका प्रचार नहीं हो सकता है। गृहस्थ लोग जैनधर्मका थोड़ा बहुत प्रचार बढ़ा सकते हैं परन्तु जिसको सच्चा या पूरा प्रचार कहते हैं वह विना गुरुओंके नहीं हो सकता। इसके बाद जब मैं कुछ अधिक स. मझने लगा, जैनधर्मके दूसरे संप्रदायोंका हाल समाचारपत्रोंके द्वारा जानने लगा, तब मैं गुरुओंकी आवश्यकताको और भी अधिक अनुभव करने लगा। अब मुझे धार्मिक कार्योंके समान सामाजिक कार्योके लिए भी गुरु आवश्यक जान पडे। इस समय मुझे लेख लिखनेका शाक होगया था-दो चार छोटे मोटे लेख में प्रकाशित भी करा चुका था। मेरा साहस बढ़ गया था, इसलिए मैंने इस विषयमें भी एक लेख लिख डाला और एक जैनपत्रमें उसको प्रकाशित भी करा दिया। उसमे सबसे अधिक जोर इस बातपर दिया था कि जैसे वने तैसे गुरुपरम्पराको फिरसे जारी करना चाहिए। हमारी जो धार्मिक और सामाजिक अधोगति हुई है उसका कारण गुरुओंका ही अभाव है। गुरुओंका शासन न होनेसे हमारे आचारविचार उच्छंखल होगये हैं, धर्मके उपदेशेसि हम वचित रहते है और सामाजिक कामों में निडर होकर मनमाना वर्ताव करते है। हमारी पंचायतियाँ अन्तःसारशून्य हो गई हैं। उनमें न्याय नहीं होता, क्योंकि स्वयं न्याय करनेवाले ही अन्यायाचरण करते हैं। इसके कुछ दिनों बाद मुझे मालम हुआ कि दक्षिण तथा गुजरातमें भट्टारक लोग हैं और वे दिगम्बर सम्प्रदायके गुरु समझे जाते है। मै जहॉका रहनेवाला हूँ, वहाँ केवल एक तेरापंथ आम्नायके ही माननेवाले हैं, इसलिए उस समय मेरा भट्टारकोंसे अपरिचित होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं । भेट्टारकोंके माहात्म्यकी कुछ कुल्पित और सच्ची किंवदन्तियाँ मैने उसी समय सुनीं। फिर क्याथा,
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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