SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ प्राचीन ग्रन्योंमें इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। पिछले अशान्तिप्रद और कष्टकर समयमें इसकी उत्पत्ति हुई है। इत्यादि । रचना प्रभावशालिनी है। जोशमें आकर कवि महाशय कहीं कहीं बहुत आगे वढ़ गये है। इस तरहके समाजसुधार सम्बन्धी टेक्टॉकी हिन्दी में भी बहुत जरूरत है। नीचे लिखी पुस्तकें भी प्राप्त हो चुकी है: १ माधवी और २ श्रीदेवी-लेखक, रूपकिशोर जैन । प्रकाशक, फ्रेंड एड कम्पनी, मथुरा । ३ विद्योन्नति संवाद और ४ पद्यकुसुमावली (मराठी)-प्रकाशक, हीराचन्द मलकचन्द काका, शोलापुर। ५ प्रार्थनाविधि-प्रकाशक, कविराज पं० केशवदेवशास्त्री, काशी । ६ हस्तिनापुर तीर्थकी रिपोर्ट । ७ चतुर्विध दानशाला शोलापुरकी रिपोर्ट । ८ जैन पाठशाला मुडवाराकी रिपोर्ट। ९ अभिनन्दन पाठशाला ललितपुरकी रिपोर्ट । १० श्रीसामायिक सूत्र । ' तेरापंथियोंका सौभाग्य और गुरुओंकी दुर्दशा। पाठक महाशय, मैं दिगम्बर जैनधर्मका अनुयायी हूँ और आम्नाय मेरी तेरापंथी है। आप जानते है कि तेरापंथियोंमें इस समय गुरुपरम्परा नहीं है। महावीर भगवानने जिस प्रकारके साधुओं या गुरुओंको पूज्य बतलाया है उस.प्रकारके गुरु इस कालमें नहीं है, इस कारण तेरापंथी किसीको अपना गुरु नहीं मानते। जिस समय मेरे विचार बहुत ही अपरिपक्व थे, उस समय मैं यह जानकर बहुत ही दुखी होता था कि हम लोगोंमें गुरुओंका अभाव है और इस कारण हमसे लोग 'निगुरिया' कहते हैं। मैं समझता था कि हमारा धर्म बहुत ही श्रेष्ठ
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy