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________________ १७३ नहीं जा सकते । बहुतसे स्थान ऐसे है जहाँ पढ़नेवाले विद्यार्थी तो बहुत हैं परन्तु स्थानीय जैनी अपनी निर्धनताके कारण वहाँ कोई पाठशाला स्थापित नहीं कर सकते हैं, अथवा थोड़ी बहुत बाहरी सहायताकी आशा रखते हैं। बहुतसी पाठशालाये ऐसी है जहाँ पठनपाठनका प्रवन्ध तो अच्छा है परन्तु विद्यार्थियोंको स्कालशिप देकर रखनेकी गुंजाइश नहीं है । इस भंडारसे इस तरहके अनेक विद्यार्थियोका और पाठशालाओंको सहायता दी जा सकेगी और सारे देशके जैनी इससे लाभ उठा सकेंगे । चार लाख रुपयोंका मासिक व्याज लगभग १५००) के होगा । यदि पाँच रुपया महीनाके हिसाबसे एक एक विद्यार्थीको सहायता दी जायगी, तो इस भंडारकी ओरसे कोई चार सौ पॉच सौ लड़के निरन्तर विद्या प्राप्त करते रहेंगे। अन्य संस्थाओंके समान प्रबन्धादिकी झंझटें भी इसमें बहुत कम है; एक आफिस और दो तीन कर्मचारी रखनेसे ही इसका अच्छा प्रबन्ध हो सकता है। पुण्यके समान यश भी इससे बहुत होगा। कुछ वृत्तियाँ ऐसी भी इस भडारकी ओरसे रक्खी जावें जो देश भरके हाईस्कूलों, कालेजों और संस्कृत पाठशालाओंमें पढ़नेवाले जैन अजैन विद्यार्थियोंको संस्थाकी ओरसे नियत किये हुए ग्रन्थोंकी परीक्षामें उत्तीर्ण होनेपर दी जावें। ऐसा करनेसे सैकडो जैन और अजैन विद्यार्थी जैनसाहित्यसे परिचित होने लगेंगे। इसका प्रबन्ध शिक्षाखातेके अधिकारियोंसे लिखापढ़ी करनेपर अच्छी तरहसे हो सकता है। - एक फंड इस संस्थामें इस तरहका भी खोला जावे जिससे उच्च श्रेणीकी विद्या प्राप्त करनेकी, इच्छा रखनेवाले किन्तु शिक्षा व्ययका
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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