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________________ बढ़ता जाता है त्यों त्यों अधिक कष्टदायक होता जाता है । राजा होनेसे कितनी कठिनाइयों झेलना पड़ती है इसका अनुभव एक भिखारीको नहीं हो सकता । अर्द्धदग्ध लेभागू लोगोंको नई नई योजनायें गढ़ना बहुत सहज मालूम होता है; परन्तु विद्वानोंको नहीं । " जहाँ देवता पैर रखनेमें भी डरते हैं वहाँ मूर्खलोग खूब धूमधामसे चलते हैं।" पहले जैन ' कहलवानेसे अप्रसन्न, पीछे थोडेसे जैनतत्वज्ञानके प्राप्त होनेसे प्रसन्न, फिर 'जैनजीवन ' व्यतीत करनेका इच्छुक और पीछे 'जैनजीवन ' से उत्पन्न होनेवाली बाहरी और भीतरी कठिनाइयोंसे दुःखी; इस तरह मैं क्रमक्रमसे अनेक अवस्थाओंमें प्रगति करने लगा। इस पिछली अवस्थाका मैंने अभी अतिक्रमण नहीं किया है इसलिए इसके पीछेकी स्थितियोका स्वरूप चित्रित करके बतलाना मेरे लिए अशक्य है। अभी मैं ' जैनजीवन ' बिता रहा हूँ और इस जीवनको अधिकसे अधिक निर्दोष और अधिकसे अधिक सम्पूर्ण बनानेके लिए अधिकाधिक प्रयत्न कर रहा हूँ। यहाँ मैं यह अवश्य कहूंगा कि जैनजीवन अंगीकार करनेके बाद मुझे जिन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा है वे अनुभवसे ऐसी मालम हुई हैं कि उन्नतिक्रमका आशय समझ लेने पर वे असह्य नहीं जान पड़ती हैं और उनसे. विरक्ति भी नहीं होती है। . जो मनुष्य सुगम या सहज जीवन व्यतीत करता है, जिसकी दृष्टिके आगे कभी भयंकर कठिनाइयों और बड़ी बड़ी विघ्नबाधायें खड़ी नहीं हुई हैं, वह मनुष्य वास्तवमें देखा जाय तो ईर्षा करनेके योग्य नहीं किन्तु दया करनेके योग्य है। क्योंकि इनके विना उसकी उत्क्रान्ति नहीं हो सकती। बालकोंको सीखा हुआ पाठ वोल जानेम
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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