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________________ १३४ समझा है। बल्कि यो कहिए कि बहुतसे लोगोंको समाजमे काम करने और अपना उद्देश्य फैलानेके लिए आपके पवित्र नामका आश्रय लेना पड़ा है। इससे पाठक समझ सकते हैं कि जैनियोंमें श्रीकुन्दकुन्द कैसे प्रभावशाली महात्मा होचुके हैं। भगवत्कुदकंदाचार्यने अपने जीवनकालमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंका प्रणयन किया है। और उनके ग्रंथ, जैनसमाजमें बड़ी ही पूज्यदृष्टिसे देखे जाते हैं। समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय आदि ग्रंथ उन्हीं ग्रंथोंमेंसे हैं जिनका जैनसमाजमे सर्वत्र प्रचार है। आज इस लेखद्वारा जिस प्रथकी परीक्षा की जाती है उसके साथ भी श्रीकुदकुदाचार्यका नाम लगा हुआ है। यद्यपि इस प्रथका, समयसारादि प्रथोंके समान, जैनियों में सर्वत्र प्रचार नहीं है तो भी यह प्रथ जयपुर, बम्बई और महासभाके सरस्वती भंडार आदि अनेक भडारोंमें पाया जाता है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ (श्रावकाचार) भी उन्हीं भगवत्कुदकुदाचार्यका बनाया हुआ है जो श्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य थे। और न सिर्फ कहा ही जाता है बल्कि खुद इस श्रावकाचारकी अनेक सधियोंमे यह प्रकट किया गया है कि यह प्रथ श्रीजिनचंद्राचायेके शिष्य कुंदकुंदस्वामीका बनाया हुआ है। साथ ही प्रथके मगलाचरणमें 'वन्दे जिनविधुं गुरम् ' इस पदके द्वारा प्रथकर्त्ताने 'जिनचद्र ' गुरुको नमस्कार करके और भी ज्यादह इस कथनकी रजिस्टरी कर दी है। परन्तु जिस समय इस अथके साहित्यकी जॉच की जाती है उस समय ग्रंथके शब्दों और अर्थों परसे कुछ और ही मामला मालूम होता है। श्वेताम्बर - - १. कुन्दकुन्दस्वामी जिनचन्द्राचार्यके शिष्य थे और उमास्वामीके गुर कुन्दकुन्द थे, इस बातका अभीतक कोई एढ प्रमाण नहीं मिला है। केवल एक पहावलीके आधारसे यह बात कही जाती है। -सम्पादक।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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