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________________ १३२ (११) होगा क्या परिणाम, सुनो, सव फूल झड़ेंगे। यथासमय फल सभी भूमिपर टपक पड़ेंगे। सुन्दरताक साथ मित्र भी त्याग करेंगे। जान वही जड़ रूख, न हम अनुराग करेंगे। इससे तुम निज मित्रकी सम्मतियोंपर कान दो। अच्छे जो उपदेश हो, उनके ऊपर ध्यान दो॥ (१२) वह अशोकका वृक्ष, शोकसे आप रहित है। और स्निग्धता-शीतलता-सौभाग्य-सहित है ॥ छाया अपनी घनी सुविस्तृत करके वनमें, करता सुखसञ्चार पथिक-आश्रितके मनमे ॥ सबको, करे अशोक, यो शुभ शोभा रमणीय है। इसका पर-उपकार यह, सचमुच अनुकरणीय है ॥ देखो फूलोको, विचित्रता इनमें वह है, जो उन्नतिका मूलमन्त्र सुखका संग्रह है। इन फूलोंमें अगर न होती यह विचित्रता। जो आकार-आकारमें न होती विभिन्नता॥ होते एकसमान जो रूप-रंगमें ये सभी। तो शोभासे विश्वको मुग्ध न करसकते कभी । (१४) है विभिन्नता यद्यपि इनके रंग ढंगमें। पर सव है, उदेश्य एकसे, लगे संगमें। अपने अपने रूप-रंग-सौरभ-विलाससे। जन्मभूमिको करें सुशोभित निज विकाससे ॥ होनहार हे वालको, ये जड़ है, पर धन्य हैं। जन्मभूमि-सेवा निरत, उसके भक्त अनन्य हैं।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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