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________________ १२८ है कि १४ वर्षकी लडकीका एक शिक्षित युवकके साथ विवाहसम्बन्ध स्थिर हुआ । वरका पिता जितना यौतुक चाहता था उस सबको जुटा न सकनेके कारण आखिर उसने अपने रहनेका मकान तक गिरवी रख दिया। परन्तु यह बात कोमलचित्ता पालिकासे न देखी गई। उसने सोचा, मेरे लिए मेरे मातापिता सदाके लिए दारिद्र कूपमें पड़ते हैं, यह कितने संतापका विपय है। इन्हें इस दुःखसे अवश्य मुक्त करना चाहिए। और कुछ उपाय न देखकर वह आगमें पडकर मर गई । हाय जिस भारतवर्पको यह अभिमान था कि हमारे यहाँके विवाहसम्बन्ध एक प्रकारके आध्यात्मिक व्यापर है, भारतवासी अपने विवाह इहलौकिक शान्ति और पारलौकिक कल्याणके लिए करते थे, उसी देशमें अव यह क्या हो रहा है। कहीं कन्यायें वेची जाती है और कहीं पुत्र वेचे जाते है। क्या जाने हमारा समाज इस योग्य कव होगा जब इन कुरीतियोंसे पिण्ड छुडाकर अपने गौरवको रक्षा कर सकेगा। क्षमा-प्रार्थना। मैं पांच महीनेसे बीमार हूँ। खाँसी मेरा पीछा नहीं छोड़ती। कोई एक महीनेसे यहाँ इन्दौरमें इलाज करा रहा हूँ। अभी तक कुछ भी आराम नहीं हुआ। जैनहितैषी इसी कारण समयपर प्रकाशित नहीं हो सकता, सम्पादनमें भी बहुत कुछ शिथिलता होती है । पाठकास प्रार्थना है कि यदि कुछ समय और भी हितैषी समयपर न निकल सके, तो उसके लिए वे उदारतापूर्वक क्षमा प्रदान करेंगे।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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