SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११९ रोंसे इस विषयमें सम्मति लेनकी भी आवश्यकता नहीं समझी गई। अस्तु, जब पदवियाँ दी जा चुकी हैं और उनका व्यपहार भी किया जाने लगा है, तब इस विषयको लेकर तर्क वितर्क करनेमें कुछ फल नहीं कि जिन लोगोंको पदवियों दी गई हैं वे वास्तवमें उनके योग्य थे या नहीं और कमसे कम पदवी देनेवाले अपनी दी हुई पदवियोंका कुछ अर्थ समझते थे या नहीं; किन्तु यह हमें ज़रूर देख लेना चाहिए कि पदची देना कहाँ तक अच्छा है, पानेवालेपर उसका क्या परिणाम होता है और हमारी पदवियोंकी कहाँ तक कदर करते है। यह सच है कि जो लोग धर्म और समाजकी सेवा कर रहे हैं उनका सत्कार करना, उनको गौरवकी दृष्टिसे देखना हमारा कर्तव्य है। हमारे ऊपर उनके जो सैकड़ों उपकारोंका बोझा है उसे हम और किसी तरह नहीं तो उनके प्रति अपनी शाब्दिक भक्ति प्रगट करके हलके ही होना चाहते हैं, परन्तु साथ ही हमें इस बातका खयाल अवश्य रखना चाहिए कि वर्तमानमे हमें ऐसे नेताओंकी और काम करनेवालोंकी जरूरत है जो सच्चे कर्मवीर है । अर्थात् जो किसी भी प्रकारके फलकी आकाक्षा रक्खे बिना ही देश, समाज और धर्मकी सेवा अपना कर्तव्य समझकर करें। कहीं ऐसा न हो कि हमारी इस शाब्दिक भक्तिसे या पदवीदानसे वे गुमराह हो जावें और अपने कर्तव्यको भूलकर हमारे दो चार शब्दोंके लोभसे मार्गच्युत हो जावें। उन्हें अपने कर्तव्यका अभिमान होना चाहिए न कि पदवीका | इसके सिवा जैसे पुरुषोंकी हमारे यहां आवश्यकता है हमारी इस पदवीवर्षासे उनका आदर्श गिर जाता है। सच पूछिए तो अभी तक जैन समाजने एक भी नेता कार्यकर्ता और सच्चा सेवक ऐसा उत्पन्न नहीं किया है जो हमारा आदर्श हो सके और जिसके प्रति भक्ति करनेके लिए हमें पदवियाँ
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy