SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ · १०७ वन-विहंगम। वन बीच बसे थे, फंसे थे ममत्त्वमें, एक कपोत कपोती कहीं। दिन-रात न एकको दूसरा छोड़ता, ऐसे हिले-मिले दोनों वहीं । चढ़ने लगा नित्य नयानया नेह, नई नई कामना होती रहीं। कहनेका प्रयोजन है इतना, उनके सुखकी रही सीमा नहीं । रहता था कबूतर मुग्ध सदा, अनुरागके रागमें मस्त हुआ । करती थी कपोती कभी यदि मान, मनाता था पास जा व्यस्त हुआ । जव जो कुछ चाहा कबूतरीने, उतना वह वैसे समस्त हुआ। इस भाति परस्पर पक्षियोंमें भी, प्रतीतिसे प्रेम प्रशस्त हुआ। सुविशाल वनोंमे उडे फिरते, । अवलोकते प्राकृत चित्र छटा । कहीं शस्यसे श्यामल खेतखड़े, । जिन्हे देख घटाका भी मान घटा ।।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy