SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ लता वहीं जल्दीसे बढ़ उठती है, यह भी कोई बात नहीं है। क्योंकि केवल नियमावली अच्छी होनेपर भी वह मनुष्यके मनको खाद्य नहीं दे सकती । अनेकानेक विषयोंके पढानेकी व्यवथा करनेसे ही शिक्षा अधिक और अच्छी होने लगी, ऐसा समझना भी भूल है क्योंकि मनुष्य जो बनता है सो“ न मेघाया न बहुना श्रुतेन " जहाँ एकान्तमें तपस्या होती है, वहीं हम सीख सकते हैं; जहाँ गुरूरूपसे त्याग होता है, जहाँ एकान्त अभ्यास या साधना होती है, वहीं हम शक्ति बढ़ा सकते हैं, जहाँ सम्पूर्ण भावसे दान होता है वहीं सम्पूर्ण भावसे ग्रहण भी सभव हो सकता है; जहाँ अध्यापकगण ज्ञानकी चर्चा में स्वयं प्रवृत्त रहते हैं वहींपर छात्रगण विद्याके प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं; बाहर विश्वप्रवृत्तिका आविर्भाव जहाँ बिना रुकावटके होता है, भीतर वहींपर मन सम्पूर्ण विकसित हो सकता है; ब्रह्मचर्यकी साधनामें जहॉ चरित्र सुस्थ और आत्मवश होता है, धर्मशिक्षा वहाँ ही सरल और स्वाभाविक होती है, और जहाँपर केवल पुस्तक और मास्टर, सेनेट और सिंडिकेट, ईटोंके कोठे और काठका फर्नीचर है, वहाँ हम जितने बड़े आज हो उठे हैं, उतने ही बड़े होकर कल भी बाहर होंगे। * ५ श्रीयुक रवीन्द्रनाथ ठाकुरकी शिक्षानिवन्धावलीके एक बगला लेखका अनुवाद ।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy