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ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । है ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव धव। वपट् ॥३॥
अष्टक।
छंद जोगीरासा (मात्रा २८)। मुनि मनसम शुचि शीर नीर अति, मलय मेलि भरि मारी। जनमजरामृत तापहरनको, चरचों चरन तुम्हारी॥ परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी।
पूजों पाय गाय गुन सुदर, नाचौं दै दै तारी ॥१॥ ____ॐ हीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ कुशर चंदन कदली नंदन, दाहनिकंदन लीनों। जलसँगघस लसि शसिसमशमकर, भवआताप हरीनों ॥ पर०॥२॥
ॐ हीं श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥
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