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ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर । संबोषट् ॥ १॥ ॐ हीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र । अत्र तिष्ठ तिष्ट । ॐ ॥२॥' ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र । अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ॥ ३॥
अष्टक।
छंद गीता तथा हरिगीता (मात्रा २८)। शुचि नीर निरमल गंगको लै, कनकभृग भराइया।
मलकरम धोवन हेत मन, वचकाय धार ढराइया ॥ जगपूज परमपुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों।
शिवकंतवंत महंत ध्यावों, भ्रतवंत नशावनों ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वामीति० ॥१॥ हरिचंद कदलीनंद कुंकुम, दंतताप निकंद है। सब पापरुजसंतापभंजन, आपको लखि चंद है ॥ ज०॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति० ॥२॥