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________________ प्रकीर्णक। AAAAAAM बांधों जुगल भुजबंध कंठा, कंठके आमर्ण। खोलों जु निमकी सेव वांधों, कहि सुभग उपकर्ण ॥७॥ खोलों जु पानी पान पत्तल, आदि सव विधि योग ।। बांधों जुगलपदके विभूपन, सकलवस्तुमनोग ॥ बांधों जु सारी शुभसँवारी, कंचुकी रसधाम । बांधों जु लहँगे अरु दुपट्टे, लखत उपजत काम ॥८॥ बांधों जु वानी प्रेमसानी, गालियाँ जुत नार। खोलों सकलपकवान पानी, करहु अब जिवनार ।। इह विधि विवाह उछाहमें, जो छंद गावै इंद । तिनके मनोरथ सिद्ध करि है, श्रीजुगादिजिनंद ॥ ९॥ फत्ति (३१ मात्रा) हे शिवतियवर जिनवर तुव पद, पंकजमहँ कमलाको वास। विघनविनायक सब मुखदायक, विशद मुजस अस रखो प्रकाश में गनिमद गोहवश प्रभुमों, प्रीति न कियो मिट किमित्रास।। अब भग्नागत आनि पगे हूं. मुफल करो मेरी अरदाम॥१॥ दुपटान गुणकारन प्रभुनो. प्रेग न झिये हिये हित चाहा। आभिक-भाव-वियग निशियामर. भजे कदेव समन्ध कुगट् ॥ अब पता प्रभुको. पायो दीनबध भियनार।।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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