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________________ गुरुस्तुतिः। गुरु पादपूज्यजी हुए मरजादके घोरी। सर्वार्थसिद्धि सूत्रकी टीका जिन्हों जोरी ॥ | जिसके लखेसों फिर न रहै चित्तमें भरम । * भवि जीवको भास है स्वपरमावका मरम॥जैवन्त ॥१२॥ धरसेन गुरूजी हरो भविवृंदकी विथा । अग्रायणीय पूर्वमें कुछ ज्ञान जिन्हें था ॥ तिनके हुए दो शिष्य पुष्पदंत भुजवली । । धवलादिकोंका सूत्र किया जिस्से मग चली॥जैवन्त ॥१३॥ * गुरु औरने उस सूत्रका सव अर्थ लहा है। * तिन धवल महाधवल जयसुधवल कहा है ॥ * गुरु नेमचंद्रजी हुए धवलादिके पाठी। सिद्धान्तके चक्रीशकी पदवी जिन्हों गांठी॥ जैवन्त ॥१४॥ तिन तीनों ही सिद्धान्तके अनुसारसों प्यारे । + गोमट्टसार आदि सुसिद्धांत उचारे ॥ यह पहिले सु सिद्धांतका विरतंत कहा है। के अव और सुनो भावसों जो भेद महा है।जैवन्त ॥१५॥ गुणधर मुनीशने पढ़ा था तीजा पराभृत । 1 ज्ञानप्रवादपूर्वमें जो भेद है आश्रित ॥ गुरु हस्तिनागजीने सोई जिनसों लहा है । । फिर तिनसों जतीनायकने मूल गहा है।।जैवंत ॥१६॥ १प्रथमश्रुतस्कन्धका ।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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