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________________ जिनेन्द्रस्तुतिः। m पावकसों शीतल नीर किया, औ चीर बढ़ा असमाना है। * भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुबेर समानाहै ॥ श्री *चिन्तामनपारस कल्पतरू, सुखदायक ये परधाना हैं। तुव दासनके सब दास यही, हमरे मनमें ठहराना हैं । तुव भक्तनको सुरइंदपदी, फिर चक्रपतीपद पाना है। * क्या बात कहों विस्तार बड़ी, वे पावें मुक्ति ठिकाना है । श्री० ॥ गति चार चौरासी लाखविषै, चिन्मूरत मेरा भटका है। हो दीनबन्धु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है। जब जोग मिला शिवसाधनका, तब विधन कर्मने हटका है।। * तुम विधन हमारा दूर करो, सुख देहु निराकुल घटका है|श्री० गजग्राहग्रसित उद्धार लिया, ज्यों अंजन तस्कर तारा है। ज्यों सागर गोपदरूप किया, मैनाका संकट टारा है।। ज्यों सूलीतै सिंहासन औ, वेडीको काट विडारा है।। त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोको आश तुमारा है ॥ श्री. १० ज्यों फाटक टेकत पाँय खुला, औ सांप सुमन करि डारा है। ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, वालकका जहर उतारा है। ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लछमीसुख विस्तारा है। त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकों आश तुमारा है । श्री।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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