SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ कविवर वृन्दावनजीकी कते हैं, कि यह ग्रन्थ कैसा अच्छा बना होगा। उपर्युक्त वातकी सलताके लिये प्रवचनसारकी प्रशस्तिमें लिखा है कि; "संवत विक्रमभूप, ठार सौ नेसठमाहीं। यह सब बानक बन्यो, मिली सतसंगति छाहीं॥ तब श्रीप्रवचनसार, ग्रन्थको छन्द बनावों। यही आस उर रही, जासते निजनिधि पावों ॥ तब छन्द रची पूरन करी, चित न रुची तब पुनि रची। सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकांतरससों मची।" तथा हि चार अधिक उनईस सौ, संवत विक्रमभूप । जेठ महीनेमें कियो, पुनि आरंभ अनूप ॥ पांच अधिक उनईस सौ, धवल तीज वैशाख । यह रचना पूरन भई, पूजी मन अभिलाख ॥ प्रवचनसार ग्रन्थ हमारे सम्प्रदायका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें निश्यचारित्रका वर्णन है। इसके मूलका श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य और संस्कृतटीकाकार श्रीअमृतचन्द्रसूरि हैं। आगरानिवासी पांडे हेमराज जीने उक टीकाके अनुसार एक उत्तम भापाटीका वनाई है और ह.. * मारे कविवरने उक्त तीनो अन्योंके अनुसार इस ग्रन्थी पद्यवद्ध रचना। की है। जिसप्रकारसे नाटकसमयसारकी पद्यरचना करके वनारसीदासजीने भाषासाहित्यको एक रत्नसे आभूषित किया था, उसीप्रकारसे यह ! ग्रन्थरत्न भी भापा कविताके हृदयका हार बन गया है। अन्तर केवल इ। तना है कि, नाटकसमयसारकी प्रसिद्धि अधिक हो गई है, और यह अ* भी तक गुप्त है । वनारसीदासजीने जो पद्यरचना की है, वह विशेष ख तत्रतासे की है, परन्तु इस ग्रन्थमें यह बात नहीं है । इसे मूल अन्धी पद्यवद्ध टीका कहे, तो कुछ अनुचित नहीं होगा। क्योकि इसमे टीका- 1 आके किसी भी विपयको नहीं छोड़ा है। हर्षका विषय है कि, उक्त प्र. न्याछपना प्रारंभ हो गया है। वह बहुत जल्दी पाठकोंके दृग्गोचर होगा।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy