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________________ पत्रव्यवहार ।। १२७ ॥ * जीर्ण चातिशयोपेतं तब्यङ्गमपि पूजयेत् । शिरोहीनं न पूज्यं स्यात्, निक्षेप्यं तन्नदादिषु ॥२॥ * अर्थात्-प्रतिमा नासिका, मुख, नेत्र, हृदय, नामिम डल, इनि स्थानविर्षे खंडित होय तौ पूजिये नाहीं । बहुरि से जीर्ण, बहुत कालकी होय (तथा कोई अतिशययुक्त होय)। कोई अंग घसि गया होय, अंगहीन होय, तौ पूज्य है ।। • अर मस्तकरहित होय तौ पूज्य नाहीं । ताळू द्रहकूपादि । विष क्षेपिये। ४ प्रश्न-दर्शनज्ञानचारित्रमयी जीवकू शास्त्रनिमें सुनिये । है, तहां सिद्ध अवस्थाविर्षे चारित्र क्यों न कहा? * उत्तर-चारित्र संसारावस्थामें त्याग ग्रहणकी अपेक्षा । कहिये है । अर शुद्ध जीवकी अपेक्षा दर्शनज्ञानखरूप कहा है। द्रव्यसंग्रहकी गाथा देखौ । अर ज्ञानविष थिर होना ही चारित्र कहा है । यात ज्ञानहीमें गर्मित भया । सिद्ध । अवस्थामें न्यारा कहनेकी विविक्षा नाहीं। ५ प्रश्न-छह महीना आठ समयमें छह सौ आठ जीवनका मोक्ष होना कहा है । अर पुराणनमें तीर्थंकरनके * साथ हजारों मुक्ति भये सो कैसें ? * उत्तर-पुराणनिमें समुच्चय कथनिकरि कया है । जैसे * कोई राजा चदै, तब तिसके साथी ताके जेते उमराव ! होय ते सवही चढ़े कहै है। तहां कोई आगे चढ़े कोई पीछे । चढ़े ताकी विविक्षा न करै तैसे जानना।।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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