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________________ छन्दशतक। १०७ । नंता सु लाभ लये जीके काल्याना हेती ऐसी । है तात राखि मुझे काल पतन सुन हो। थुती कीजैवानी खादि सुगंधमई रिद्धि रुलै ___ कभी महा नरकादी पतति हु न हो ॥ १०७ ॥ कविनामादि निकालनेकी रीति। दोहा। या कवित्तके वरनमहँ, एक छोड़ि इक लेहु । तजि तुकांतके तीन तव, कविकुलादि कहि देहु ।।१०८॥ बुद्धिवानोंसे प्रार्थना। विजय। पिंड गुरू लघुको जिहितै बंधै, पिंगल नाम वही परमानो। * जामें गनागन नष्ट उदिष्टरु, मेरुको आदिक भेद विधानो॥ सो तो कछू इत भाषत नाहिं, इहां तो जिनिंदको नाम बखानो। : * तामें लग्योकहुँ दूषन होयसो,शोधि सुधारियोहे बुधिवानो १०९१ अन्तमंगलाचरण । दोहा। मंगलमूरति देव है, श्रीअरहंत उदार। । सो इत नित मंगल करो, मेटो विघन विकार ॥ ११ ॥ *जिनके धर्मप्रसादसों, भई प्रतिज्ञा सिद्धि। * सो जिनचंद हमें करो, सुखसागरकी वृद्धि ॥ १११ ॥ जयवंतो वरतो सदा, जैनधर्म दुखहर्ने । वृंदावनको इजियो, मंगल उत्तम शर्न ॥ ११२ ॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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