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________________ १०६ वृन्दावनविलास भविक शरन गह कहत चहत नित, समरथ भवदधि-जल हरन ॥ १०५॥ मनहरन (वर्ण ३१) ___ चारों घाति कमको विनाशिके विशुद्ध भयो, शुद्ध गुनरतन भरो करंडवत है। जाके ज्ञान गुनके अनंतवें विभागमाही, __ लोकालोक 'वृंद' झलकै अखंडवत है ॥ भवदुखउदधि अपार पार धारिवेको, वही जिनचंददेव ही तरंडवत है। ऐसे अरहंत नित मंगल करन मन, हरन तिन्है सदा हमारी दंडवत है ॥ १०६ ॥ इति दडकप्रकरणसमाप्त। कविका परिचय। दडक। आकास शी मजी है मैंल बुंददाह वसुनसि अत्युग्र अवाघ लसो गोत्रई गुन हो। * बल जगोऽनंत बुध शर्म प्रचंड दश, काम वेग टारि शीलता सुबोधमा धुन हो ॥ १ इस छन्दमें जो अक्षर मोठे टाइपमें दिये गये है, उनको एकत्र * करनेसे "काशीजीमे वृन्दावन अग्रवालगोईलगोत धर्मचंदका वेटा शीताबो माता लालजीका नाती सीतारामुका पनती । जैनी दिगंमरि रुकमनका पति ।" इस प्रकार कविनामादि निकलते । हैं यह कवित्त बड़े कष्टसे बनाया गया होगा।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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