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________________ छन्दशतक। E हाकलिका (प्रतिचरणमें १४ मात्रा) 'सब जिय निज समतूल गनै । निशदिन जिनवर वैन भने । निजअनुभवरसरीति धरै । तासु कहा कलिकाल करै ॥ पद्धड़ी (मात्रा १६) जिनबालछबी सचि लखी आय । __ मन अड़ी खड़ी टकटकी लाय । उमग्यौ उमंग मनमें न माय । ___ तब गद्दपद्द पद्धरी गाय ॥ रूपचौपई (१६ मात्रा) भवथित उघटित निकट रही है। सुगुरुवचन जुतप्रीति गही है । वसत सुसंग कुसंगत खोई । सेहजसरूपचोप इमि होई ॥ अडिल्ल (२१ मात्रा) कामिन-तन-कान्तार, काम जहाँ मिल्ल है। पंचवान कर घर, गुमान अखिल्ल है ।। करै जगतजन जेर, न जाके ढिल्ल है। शील बिना नहिं हटत, बड़ो हि अडिल है ।। ७२ ॥ कुंडलिया (सर्व १४४ मात्रा) राजै प्रभुको गोद धरि, जनमसमय सुरराय । तुरित जात गिरिराजपर, विधिजुत न्हौन कराय ॥ १ रूपचौपईके अन्तमें लघु होनेसे चौपाई होती है। २ आत्मस्वरूपमें 'चोप' अर्थात् प्रेम । ३ जगल, वन, । ४ हठीला।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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