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________________ छन्दशतक । लोलतरंग ( भ भ भ ग ग) द्रव्यसुभाविक पर्जेयमाही । हान रु वृद्धि छमेद सदा हीं॥ सागरबीच उठति उमंगी त्योंतित होतकलोलतरं सायक ( स म त ल ग) * अपने आतमके ज्ञायक है । अनुभौमें रहिवे लायक हैं। करमोंके छलके घायक है । मुनिपैछायक ही सायक हैं ॥२४॥ स्वागत (र न भ गग) हस्तनागपुर हर्ष विशेखी । श्रीश्रेयांस नृप हू पुनि पेखी। दान दीन सनमान अलेखी। आदिईशमुनि स्वागत देखी २५ । समुंद्रका (नन र लग) समकित व्रत आदि जे कहे । शकतिप्रमित तासको गहे। उर नित रटना जिनिंद्रका । तिनकहँ यह भौ समुंद्र का २६॥ अनुकूल (म त नग ग) ता घर होवै निधि धनमूलो । सो सुख पावै अगम अतूलो । मंगलकारी प्रमुदित फूलो। जापर है श्रीजिन अनुकूलो ॥२७॥ - १ इसे दोधक तथा वन्धु भी कहते हैं । २ किसी २ ने इसे सुभद्रिI का लिया है। मौक्तिकमाली भी इसे कहते हैं।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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