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________________ छन्दशतक। धरा । (त म ल ग) सांची कथा है जैनकी । ज्ञानी मथा है ऐनकी। हो पारखी ! देखो खरा। जो ही धरा सो ही तरा१२ ॥ प्रमानिका (ज र लग) घटादि क्या पटादि क्या । वृथा रटै सवादि क्या। सधै सुवोध सामका । वही प्रमान कामका ॥१३॥ विद्युन्माला (म म ग ग) जैनी जोगी वर्षाकाले । आपा ध्यावै बाधा टाले। कूकै केकी मेघज्वाला । चौघा नच्चै विद्युन्माला॥१४॥ श्लोक। आप्तागमपदार्थोंके, खामी सर्वज्ञ आप हो । सुरिंदवृंद सेवै है, आपको इसलोकमें ॥ १५ ॥ तोमर ( स ज ज) जिसने गहा व्रत नेम । कबहूँ न त्यागो तेम । उपसर्गहूमहँ याद । नहिं त्यागतो मरजाद ॥ १६ ॥ पुनश्च । जिसका प्रभूसों नेह । जग धन्य है नर तेह । किन होहु कोटपवाद । नहिं त्यागतो मरजाद॥१७॥ १ इसे प्रमाणी तथा नगस्वरूपिणी भी कहते हैं । २ जिसके प्रत्येक चरणका पांचवा अक्षर लघु और छठा दीर्घ हो, तथा दूसरे और चौथे चरणका * सातवा वर्ण भी लघु हो, उसे शोक मनुष्टुप् कहते हैं । इसमें और कोई । । नियम नहीं है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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