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________________ .. आवश्यक दिग्दर्शन क्षण गुजरते चले जाते हैं। उनके लिए सांसारिक कंचन कामिनी आदि विषय ही आवश्यक हैं। परन्तु जो अन्तष्टि हैं, जिनके विचारो का आत्मा की ओर झुकाव है, जो क्षणिक वैषयिक सुख में मुग्ध न होकर स्थायी आत्म-कल्याण के लिए सतत सचेष्ट हैं। उनका आवश्यक प्राध्यात्मिक-साधना रूप है। ___अन्तष्टि वाले सजन साधक कहलाते हैं, उन्हें कोई भी जडपदार्थ अपने सौन्दर्य से नहीं लुभा सकता; अस्तु उनका आवश्यक कर्म वही हो सकता है, जिसके द्वारा आत्मा सहज स्थायी सुख का अनुभव 'करे, कर्म-मल को दूर कर सहज स्वाभाविक निर्मलता प्राप्त करे, सदा काल के लिए सब, दुःखों से छूट कर अन्त में अजर अमर पद प्राप्त करे। यह अजर, अमर, सहज, स्वाभाविक अनन्त सुख तभी जीवात्मा को प्राप्त हो सकता है, जबकि आत्मा मे सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप अध्यात्म-ज्योति का पूर्णतया विकास हो। और इस अध्यात्म-ज्योति का विकास विना आवश्यक क्रिया के कथमपि नहीं हो सकता । प्रस्तुत , प्रसंग में इसी आध्यात्मिक आवश्यक का वर्णन करना अभीष्ट है और संक्षेप में इस आध्यात्मिक आवश्यक का स्वरूप-परिचय इतना ही है कि सम्यगज्ञान आदि गुणों का पूर्ण विकास करने के लिए, जो क्रिया अर्थात् साधना अवश्य करने योग्य है, वही आवश्यक है।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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