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________________ .८० आवश्यक दिग्दर्शन एत्थ वि समणे अणिस्सिए, अणियाणे, श्रादाणं च, अंतिवाये च, मुसावायं च, बहिद्धं च, कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पिज्ज च, दोसं च, इच्चेव जो जो श्रादाणं अप्पणो पदोसहेऊ, तो तो श्रादाणातो पुर्व पडिविरते पाणाइवाया सिया दंते, दविए, वोसट्टकाए समणे त्ति वच्चे। [सूत्र कृतांग १ । १६ । २] जैन संस्कृति की साधना का समस्त सार इस प्रकार अकेले श्रमण शब्द में अन्तर्निहित है । यदि हम इधर-उधर न जाकर अकेले श्रमण शब्द के समत्व भाव को ही अपने आचरण में उतार लें तो अपना और विश्व का कल्याण हो जाय । जैन सस्कृति की साधना का श्रम केवल विचार में ही नहीं, आचरण में भी उतरना चाहिए, प्रतिपल एवं प्रति क्षण उतरना चाहिए । सम भाव की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला श्रम मानव जीवन में कभी न बुझने वाला अमर प्रकाश प्रदान करता है ।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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