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________________ श्रमण-धर्म रखता है, ममत्त्वबुद्धि से नहीं। ममत्त्व बुद्धि से रक्खा हुश्रा उपकरण जैनसंस्कृति की भाषा में उपकरण नहीं रहता, अधिकरण हो जाता है, अनर्थ का मूल बन जाता है। कितना ही अच्छा सुन्दर उपकरण हो, जैनश्रमण न उस पर मोह रखता है, न अपनेपन का भाव लाता है, न उसके खोए जाने पर प्रातध्यान ही करता है। जैन भिक्षु के पास वस्तु केवल वस्तु बनकर रहती है, वह परिग्रह नहीं बनती । क्योंकि परिग्रह का मूल मोह है, मूर्छा है, आसक्ति है, ममत्व है । साधक के लिए यही सबसे बडा परिग्रह है। प्राचार्य शय्यंभव दशवकालिक सूत्र में भगवान् महावीर का सन्देश सुनाते हैं-'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो नाइपुत्त ण ताइणा ।' प्राचार्य उमास्वाति कहते हैं-'मूर्छा परिग्रहः ।' मूर्छा का अर्थ आसक्ति है। किसी भी वस्तु में, चाहे वह छोटी, बडी, जड, चेतन, बाह्य एवं प्राभ्यन्तर श्रादि किसी भी रूप में हो, अपनी हो या पराई हो, उसमें आसक्ति रखना, उसमें बंध जाना, एवं उसके पीछे पडकर अपना प्रात्म-विवेक खो बैठना, परिग्रह है। बाह्य वस्तुओं को परिग्रह का रूप यह मूर्छा ही देती है। यही सबसे बडा विष है। अत: जैनधर्म भिक्षु के लिए जहाँ बाह्य धन, सम्पत्ति आदि परिग्रह के त्याग का विधान करता है, वहाँ ममत्त्व भाव आदि अन्तरंग परिग्रह के त्याग पर भी विशेष बल देता है। अन्तरंग परिग्रह के मुख्य रूपेण चौदह भेद हैं-मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ । प्राचार्य शुभचन्द्र कहते हैंमिथ्यात्व-वेदरागा दोषा हास्यादयोऽपि षट् चैव । चत्वारश्च कषायाश् , चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥ जैनश्रमण का एक बहुत सुप्रसिद्ध नाम- निग्रन्थ है । आचार्य हरिभद्र के शब्दों में निर्ग्रन्थ का अर्थ है-अन्थ अर्थात् गॉठ से रहित ।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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