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________________ ७० अावश्यक दिग्दर्शन भूमि को क्षेत्र कहते हैं । यह दो प्रकार का है-सेतु और केतु । नहर, कूत्रा आदि कृत्रिम साधनों से सींची जाने वाली भूमि को सेतु कहते हैं और केवल वर्षा के प्राकृतिक जल से सींची जाने वाली भूमि को केतु । (२) वास्तु-प्राचीन काल में घर को वास्तु कहा जाता था। यह तीन प्रकार का होता है-खात, उच्छ्रित और खातोच्छित । भूमिगृह अर्थात् तलघर को 'खात' कहते हैं । नींव खोदकर भूमि के ऊपर बनाया हुआ महल आदि उच्छ्रित' और भूमिगृह के ऊपर बनाया हुया भवन 'खातोच्छित' कहलाता है। (३) हिरण्य-श्राभूषण आदि के रूप में गढ़ी हुई तथा विना गढ़ी हुई चॉदी। (४) सुवर्ण-गढ़ा हुआ तथा विना गढ़ा हुआ सभी प्रकार का स्वर्ण । हीरा, पन्ना, मोती आदि जवाहरात भी इसी में अन्तभूत हो जाते हैं। (५) धन-गुड, शक्कर आदि । (६) धान्य-चावल, गेहूँ बाजरा आदि । (७) द्विपद-दास, दासी श्रादि । (८) चतुष्पद-हाथी, घोडा, गाय आदि पशु । (१) कुष्य-धातु के बने हुए पात्र, कुरसी, मेज श्रादि घरगृहस्थी के उपयोग में आने वाली वस्तुएँ । जैनश्रमण उक्त सब परिग्रहों का मन, वचन और शरीर से न स्वयं संग्रह करता है, न दूसरों से करवाता है और न करने वालों का अनुमोदन ही करता है। वह पूर्णरूपेण असंग, अनासक्त, अकिंचन वृत्ति का धारक होता है। कौडीमात्र परिग्रह भी उसके लिए विष है। और तो क्या, वह अपने शरीर पर भी ममत्त्व भाव नहीं रख सकता । वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि जो कुछ भी उपकरण अपने पास रखता है, वह सब संयम-यात्रा के सुचारू रूप से पालन करने के निमित्त ही आदि पशु । कथा के उपयोग में ना के बने हुए
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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