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________________ श्रमण-धर्म करने की इच्छा के वेग को, उदर के वेग को, उपस्थ (कामवासना) के वेग को रोकता है, उसको मै ब्रह्मवेत्ता मुनि समझता हूँ। वाचो वेगं, मनसः क्रोध-वेगं, चिधित्सा-वेगमुदरोपस्थ-वेगम् । एतान् वेगान् यो विषहेदुदीर्णास् तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनिं च। । (महा० शान्ति० २६६ । १४) ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल सम्भोग में वीर्य का नाश न करते हुए उपस्थ इन्द्रिय का संयम रखना ही नहीं है। ब्रह्मचर्य का क्षेत्र बहुत व्यापक क्षेत्र है। अतः उपस्थेन्द्रिय के संयम के साथ-साथ अन्य इन्द्रियो का निरोध करना भी आवश्यक है। वह जितेन्द्रिय साधक ही पूर्णब्रह्मचर्य पाल सकता है, जो ब्रह्मचर्य के नाश करने वाले उत्तेजक पदार्थों के खाने, कामोद्दीपक दृश्यों के देखने, और इस प्रकार की वार्तायों के सुनने तथा ऐसे गन्दे विचारो को मन में लाने से भी बचता है। आचार्य शुभचन्द्र ब्रह्मचर्य की साधना के लिए निम्नलिखित दश प्रकार के मथुन से विरत होने का उपदेश देते हैं(१) शरीर का अनुचित संस्कार अर्थात् कामोत्तेजक शृङ्गार आदि करना। (२) पौष्टिक एवं उत्तेजक रसों का सेवन करना । (३) वासनामय नृत्य और गीत श्रादि देखना, सुनना। (४) स्त्री के साथ ससर्ग-घनिष्ठ परिचय रखना । (५) स्त्री सम्बन्धी संकल्प रखना । (६) स्त्री के मुख, स्तन यादि अंग-उपांग देखना। (७) स्त्री के अंग दर्शन सम्बन्धी संस्कार मन में रखना। (८) पूर्व भोगे हुए काम भोगों का स्मरण करना ।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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