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________________ आवश्यक दिग्दर्शन जन समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता ? बस, अाज जिन से घृणा करते हो, क्या वे अपने दुर्गुणों का. परित्याग करने के बाद कभी अच्छे नहीं हो सकते हैं ? अवश्य हो सकते हैं । अतएव तुम पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।" -"एक बात और ध्यान में रक्खो। दूसरो के प्रति उदार बनो, अनुदार नहीं। जब कभी दूसरों के सम्बन्ध में सोचो, उनके गुण और उनकी अच्छाइयाँ ही सोचो । गुणदर्शन की उदार वृत्ति रखने से दूसरों के प्रति सद्भावना का वातावरण तैयार होगा । यह वातावरण अमृत का होगा, विष का नही । सद्भावना बुरों को भी भला बना देती है। क्या संसार में सब दुष्ट ही हैं, सज्जन कोई नहीं। जितना समय तुम दुष्टो की दुष्टता के चिंतन में लगाते हो, उतना समय सज्जनों की सज्जनता के चिंतन में लगानो न ? जो जैसों का चिन्तन करता है, वह वसा बन जाता हैं । दुष्टों का चितन एक दिन अपने को भी दुष्ट बना सकता है । घृणा का वातावरण अन्ततोगत्वा यही परिणाम लाता है। और हॉ, दुष्टों में भी क्या कोई सद्गुण नहीं हैं ? नीच से नीच आदमी में भी कोई छोटी-मोटी अच्छाई हो सकती है। अतएव तुम उसकी बुराई के प्रति दृष्टि न डाल कर अच्छाई की ओर देखो। दो साथी बाग में घूमते हुए गुलाब के पास पहुंच गए। गुलाय के सुन्दर फूल खिले हुए थे और आस-पास के वातावरण में अपनी मादक सुगन्ध बिखेर रहे थे। पहला साथी हर्षोन्मत हो उठा और बोला-अहा कितने सुन्दर एवं सुगन्धित फूल हैं ! दूसरे साथी ने कहा-अरे देखो, कितने नुकीले कांटे हैं ? यह है दृष्टि भेद । बताश्रो, तुम क्या होना चाहते हो ? पहले साथी बनोगे, अथवा दूसरे ? हमारी बात मान सकते हो तो तुम भूल कर भी दूसरे' का मार्ग न पकडना । तुम-गुलाब के फूल देखो, कांटे क्यों देखते हो ? जिनकी दृष्टि - कांटों की ओर होती है, कभी कभी वे-बिना कांटो के भी कांटे देखने लगते हैं।" -"जब कभी, दुर्गुण एवं दोष देखने हों, अपने अन्दर में देखो।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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