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________________ १७० श्रावश्यक दिग्दर्शन भलाइयाँ ही हैं ? मैं भी तो झूठ बोलता हूँ, दम्भ करता हूँ, चोरी करता हूँ, और आस-पास के दुर्बलों को अत्याचार की चक्की में पीसता हूँ। क्या मैं कभी क्रोध नहीं करता, अभिमान नहीं करता, माया नहीं करता, लोम नहीं करता ? मुझ मे भी पापाचार की भयंकर दुर्गन्ध है । दुर्भाग्य से अपने दोष पीठ की ओर डाल रक्खे हैं, अत: श्रात्मा उन्हें देख ही नहीं पाता, विचार ही नहीं पाता । अपने दोपों के साथ दूसरों के के गुण भी पीछे की ओर ही डाल रक्खे हैं, अतः उनकी ओर भी दृष्टि नहों जाती । यह संसार है, इसमें जहाँ बुरे हैं, वहाँ अच्छे भी तो हैं । जहाँ अपने साथ बुराई करने वाले हैं, वहाँ भलाई करने वाले भी तो हैं। परन्तु यह यात्री दूसरों के गुण, दूसरों की अच्छाइयाँ कहाँ देखता हैं ? दूसरों की दया, उपकार, सेवा और पवित्रता सब कुछ भुला दी गई हैं । याद हैं केवल उनके दोष । धर्मस्थान हो, सार्वजनिक सभा हो, उत्सव हो, अकेला हो, घर हो, बाहर हो, सर्वत्र दूसरों के दोषों का ढिंढोरा पीटता है । जब अवकाश मिलता है तभी विचारता है, याद करता है, कहीं भूल न जाय । बड़ा भयंकर है यात्री। इस ने खुरजी इस ढंग से डाली है कि यह अाप भी बरबाद हो रहा है, शान्ति नहीं पा रहा है। इसके मन, वाणी और कर्म में जहर भरा हुआ है। सब ओर घृणा एवं विद्वेष के विष कण फैंक रहा है। आदरबुद्धि है एक मात्र अपनी ओर, अन्यत्र कहीं नहीं । खुरजी वहन करने की पद्धति इतनी भद्दी है कि उसके कारण अपने को देवता समझता है और दूसरों को राक्षस ! अब बताइए, ऐसे यात्री को स्थायी रूप में विश्राम मिले तो कैसे मिले ? यात्रा पूरी हो तो कैसे हो ? भटकना समाप्त हो तो कैमे हो ? जैनधर्म और जैन संस्कृति ने प्रस्तुत यात्री के कल्याणार्थ अत्यन्त सुन्दर विचार उपस्थित किए हैं। जैन धर्म के अनन्तानन्त तीर्थंकरों ने कहा है-"आत्मन् ! कुछ सोचो, समझो, विचार करो। जिस ढंग से तुम चल रहे हो, जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे हो, यह तुम्हारे लिए
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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