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________________ प्रतिक्राण: जीवन की एक रूपना १६१ जवान हो और हजार ही हाथ पैर । आप हर आदमी के सामने अलगअलग मन बदले, जबान बदलें और क्म बदलें। मानव-जीवन के तीन टुकड़े अलग-अलग करके डाल देने में कौन-सी भलाई है ? - विभिन्न रूपों और टुकडो में बॅटा हुश्रा अव्यवस्थित जीवन, जीवन नहीं होता, लाश होता है। मै समझता हूँ, आप किसी भी दशा में जीवन की अखंडता को समाप्त नहीं करना चाहेंगे, सुरदा नहीं होना चाहेंगे। भगवान महावीर जीवन की एकरूपता , पर बहुत अधिक बल देते थे। साधक के सामने सब से पहली पूरी करने योग्य शर्त ही यह थी कि वह हर हालत में जीवन की एक रूपता को बनाए रक्खेगा, उसकी वाणी मन का अनुसरण करेगी तो उसकी चर्या मन-वाणी का अनुधावन ! , जैन सस्कृति ने जीवन मे बहुरूपिया होना, निन्ध माना है। श्रादि. काल से मानव जीवन की एकरसता, एकरूपता और अखण्डता ही जैन सस्कृति का अमर आदर्श रहा है। उसके विचार में जितना कलह, जितना द्वन्द्व, जितना पतन है, वह सब जीवन की विषम गति में ही है। ज्योंही जीवन में समगति आएगी, जीवन का संगीत समताल पर मुखरित. होगा, त्योंही संसार में शान्ति का अखण्ड साम्राज्य स्थापित हो जायगा,. अविश्वास विश्वास में बदलेगा और आपस के वैर विरोध विश्वस्त प्रेम एव सहयोग में परिणत हो जायेंगे ! भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियो से मानव की संत्रस्त श्रात्मा स्वर्गीय दिव्य भावों मे पहुँच जायगी । जीवन की एक रूपता के लिए, देखिए, जैन साहित्य क्या कहता है'? दशवकालिक सूत्र का चतुर्थ अध्ययन हमारे सामने है :___ “से मिक्खु वा भिक्खुणी वा संजय विरय-पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा, राको वा, एगो वा, परिसागो वा, सुत्ते वा, जागरमाणेवा"""""" . ऊपर के लम्बे पाठ का भावार्थ यह है कि दिन हो या रात अकेला हो या हजारो की सभा में, सोता हो या जागता साधकं अपने
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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