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________________ १६० आवश्यक दिग्दर्शन अंगारों की ! किसी भी प्रकार के अातंक, भय, प्रेम, प्रलोभन, हानि, लाभ महान् आत्माओं को डिगा नहीं सकते, बदल नहीं सकते। वे हिमालय के समान अचल, अटल, निर्भय, निर्द्वन्द्व रहते हैं । मृत्यु के मुख में पहुँच कर भी एक ही बात सोचना, बोलना और करना, उनका पवित्र श्रादर्श है। संसार की कोई भी भली या बुरी शक्ति, उन्हें झुका नहीं सकती, उनके जीवन के टुकड़े नहीं कर सकती। ___परन्तु जो लोग दुर्बल है, दुरात्मा हैं, वे कदापि अपने जीवन की एकरूपता को सुरक्षित नहीं रख सकते । उनके मन, वाणी और कर्म तीनो तीन' राह पर चलते हैं। जरा-सा भय, जरा-सा प्रेम, जरा-सी हानि, जरा-सा लाभ भी उनके कदम उखाड़ देता है। वे एक क्षण में कुछ है तो दूसरे क्षण में कुछ। परिस्थितियो के बहाव मे बह जाना, हवा के अनुसार अपनी चाल बदल लेना, उनके लिए साधारण-सी बात है। सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर उठकर देखना, उन्हें प्राता ही नहीं । उनका धर्म, पुण्य, ईश्वर, परमात्मा सब कुछ स्वार्थ है, मतलब है। वे जैसे और जितने आदमी मिलेगे, वैसी ही उतनी ही वाणी बोलेगे। और जैसे जितने भी प्रसंग मिलेंगे, वैसे ही उतने ही काम करेंगे। अब रहा, सोचना सो पूछिए नहीं । समुद्र के किनारे खड़े होकर जितनी तरंगें श्राप देख सकते हैं, उतनी ही उनके मन की तरंगे होती हैं। उनकी यात्मा इतनी पतित और दुबल होती है कि आस-पास के वातावरण का-भय, विरोध और प्रलोभन आदि का उन पर क्षण-क्षण मे भिन्न-भिन्न प्रभाव पडता रहता है। अब आपको विचार करना है कि आपको क्या होना है, महात्मा अथवा दुरात्मा ? मै समझता हूँ श्राप दुरात्मा नहीं होना चाहेंगे। दुरात्मा शब्द ही भद्दा और कठोर मालूम होता है। हॉ, आप महात्मा ही बनना चाहेंगे! परन्तु मालूम है, महात्मा बनने के लिए आपको अपने जीवन की एक रूपता करनी होगी। मन, वाणी और कर्म का द्वैत मिटाना होगा । यह भी क्या जीवन कि-आपके हजार मन हों, हजार
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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