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________________ १५६ श्रावश्यक दिग्दर्शन उच्चगोत्र का बन्ध करता है, सुभग, सुस्वर श्रादि सौभाग्य की प्राप्ति होती है, सब उसकी प्राज्ञा शिरसा स्वीकार करते हैं और वह दाक्षिण्यभाव. कुशलता एवं सर्व प्रियता को प्राप्त करता है।' प्रतिक्रमण पडिक्कमणेणं भंते । जीवे कि जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिदाइ पिहेइ, पिहियवयछिद पुण जीवे निरुद्धासवे असबल चरित्त अट्रसु पवयणमायासु उवउत्त उपहुत्त (अप्पमत्त) सुप्पणिहिए विहरइ । 'भगवन् ! प्रतिक्रमण करने से प्रात्मा को किस फल की प्राप्तिः होती है ? 'प्रतिक्रमण करने से अहिंसा श्रादि व्रतों के दोषरूप छिद्रों का निरोध होता है और छिद्रों का निरोध होने से आत्मा अाश्रव का निरोध करता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन करता है। और इस प्रकार आठ प्रवचनमाता, पाँच समिति एवं तीन गुन्ति रूप संयम में सावधान, अप्रमत्त तथा सुप्रणिहित होकर विचरण करता है ।' कायोत्सर्ग काउसग्गेणं भंते । जीवे किं जणयइ ? काउंसग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ, विसुद्धपायच्छिते य ज.वे निव्वुयहियए ओहरियभरुत्व भारवहे पसत्थधम्ममाणोवगए सुह सुहेणं विहरइ। 'भगवन् ! कायोत्सर्ग करने से आत्मा को क्या लाभ होता है." 'कायोत्सर्ग करने से अतीत काल एवं आसन्न भूतकाल के प्रायश्चित्तविशोध्य अतिचारों की शुद्धि होती है और इस प्रकार विशुद्धि-प्राप्त श्रात्मा प्रशस्त धर्मध्यान में रमण, करता हुआ इहलोक एवं परलोक में उसी प्रकार सुखपूर्वक विचरण करता है जिस प्रकार सिर का बोझ उतर जाने से मजदूर सुख का अनुभव करता है।'
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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