SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावश्यक-दिग्दर्शन रूड़ा है । यदि मनुष्य टीक-ठीक रूप से आवश्यक साधना को अपनाते रहे तो फिर कभी भी उनका नैतिक जीवन पतित नहीं हो सकता, उनकी प्रतिष्ठा भंग नहीं हो सकती, विकट से विकट प्रसंग पर भी वे अपना लक्ष्य नहीं भूल सकते। ___मावि स्वास्थ्य को अाधार शिला मुख्यतया मानसिक प्रसन्नता पर है । यद्यपि दुनिया में अन्य भी अनेक साधन ऐसे हैं, जिनके द्वारा कुछ न कुछ मानसिक प्रसन्नता प्राप्त हो ही जाती है। परन्तु स्थायी मानसिक प्रसन्नता का स्रोत पूर्वोक्त तत्त्वों के आधार पर निर्मित अावश्यक ही है। बाह्य जड पदार्थों पर याश्रित प्रसन्नता क्षणिक होती है । असली स्थायी प्रसन्नता अपने अन्दर ही है, और वह अन्दर की साधना के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अब रहा मनुष्य का कौटुम्बक अर्थात् पारिवारिक सुख । कुटुम्ब को सुखी बनाने के लिए मनुष्य को नीति प्रधान जीवन बनाना आवश्यक है। इसलिए छोटे बड़े सत्र में एक दूसरे के प्रति यथोचित विनय, श्राज्ञा पालन, नियमशीलता, अपनी भूलों को स्वीकार करना एवं अप्रमत्त रहना जरूरी है। ये सब गुण आवश्यक साधना के द्वारा सहज ही में प्राप्त किए जा सकते हैं। सामाजिक दृष्टि से भी आवश्यक क्रिया उपादेय है। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए विचारशीलता, प्रामाणिकता, दीर्घदर्शिता और गम्भीरता श्रादि गुणों का जीवन में रहना आवश्यक है । अस्तु, क्या शास्त्रीय और क्या व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से आवश्यक क्रिया __ का यथोचित अनुठान करना, अतीव लाभप्रद है। ['यावश्यकों का क्रम' और 'श्रावश्यक से लौकिक जीवन की शुद्धि' उक्त दोनों प्रकरणों के लिए लेखक जैन जगत के महान तत्वचिंतक एवं दार्शनिक पं० सुवलालजी का ऋणी है। पंडित जी के 'पंच प्रति क्रमण' नामक ग्रन्थ से ही उक्त निबन्धद्वय का प्रायः शब्दशः विचारशरीर लिया गया है 1.]
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy