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________________ ___१४४ श्रावश्यक दिग्दर्शन पच्चक्खाणंमि कए, आसवदाराइ हुति पिहियाई। आसव - वुच्छेएणं, तरहा-वुच्छयणं होइ॥ १५६४ ।। -प्रत्याख्यान करने से संयम होता है, संयम से प्राश्रव का निरोध - संवर होता है, अाश्रवनिरोध से तृष्णा का नाश होता है। तण्हा-वोच्छेदेण य, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोचसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥१५६शा -तृष्णा के नाश से अनुपम उपशमभाव अर्थात् माध्यस्थ्य परिणाम होता है, और अनुपम उपशमभाव से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है । तत्तो चरित्तधम्मो, कम्मविवेगो तो अपुव्वं तु । तत्तो केवल-नाण, तो य मुक्खो सया सुक्खो ॥१५६६॥ -उपशमभाव से चारित्र धर्म प्रकट होता है, चारित्र धर्म से फर्मों की निर्जरा होती है, और उससे अपूर्वकरण होता है । पुनः अपूर्वकरण से केवल ज्ञान और केरल ज्ञान से शाश्वत सुखमय मुक्ति प्राप्त होती है। प्रत्याख्यान के मुख्यतया दो प्रकार है-मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तर गुण प्रत्याख्यान । मूल गुण प्रत्याख्यान के भी दो भेद है-- सर्वमूल गुण प्रत्याख्यान और देश गुण प्रत्याख्यान | माधुओं के पॉच महाप्रत सर्वमूल गुण प्रत्याख्यान होते हैं। और गृहस्थों के पाँच मुक्त देश गुण प्रत्याख्यान है। मूल गुण प्रत्याख्यान यावज्जीवन के लिए ग्रहण किए जाते हैं। उत्तरगुण प्रत्याश्यान, प्रतिदिन एवं कुछ दिन के लिए उपयोगी
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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