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________________ १४० आवश्यक दिग्दर्शन अभिभव कायोत्सर्ग के लिए अभ्यासस्वरूप होता है। नित्यप्रति कायोत्सर्ग का अभ्यास करते रहने से एक दिन वह अात्मबल प्राप्त हो सकता है, जिसके फलस्वरूप साधक एक दिन मृत्यु के सामने सोल्लास हँसता हुया खडा हो जाता है और मर कर भी मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है। ___कायोत्सर्ग के द्रव्य और भाव-स्वरूप को समझने के लिए एक जैनाचार्य कायोत्सर्ग के चार रूपों का निरूपण करते हैं। साधकों की जानकारी के लिए हम यहाँ संक्षेप में उनके विचारों का उल्लेख कर रहे हैं - (१)उत्थित उत्थित-कायोत्सर्ग के लिए खड़ा होने वाला साधक जब द्रव्य के साथ भाव से भी खडा होता है, अातं रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान में रमण करता है, तब उस्थितोस्थित कायोत्सर्ग होता है। यह कायोत्सर्ग सर्वोत्कृष्ट होता है । इसमें सुन आत्मा जागृत होकर कर्मों से युद्ध करने के लिए तन कर खड़ा हो जाता है। (२) उत्थित निविष्ट-जब अयोग्य साधक द्रव्य से तो खड़ा हो जाता है, परन्तु भाव से गिरा रहता है, अर्थात् प्रातरौद्र ध्यान की परिगति में रत रहता है, तब उत्थित-निविष्ट कायोत्सर्ग होता है। इस में शरीर तो खड़ा रहता है, परन्तु प्रात्मा बैठी रहती है। (३) उपविष्ट उत्थित-अशक्त तथा वृद्ध साधक खड़ा तो नहीं हो पाता, परन्तु अन्दर में भाव शुद्वि का प्रवाह तीत्र है । अतः जब वह शारीरिक सुविधा की दृटि से पद्मासन यादि से बैठ कर धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान में रमण करता है, तब उपविष्ट वायोत्सर्ग होता है। शरीर बैठा है, परन्तु अात्मा खड़ा है।। (४) उपविष्ट-निविष्ट-जब पानसी एवं कर्तव्यशत्य साधक शरीर से भी बैठा रहता है और भाव से भी बैठा रहता है, धर्म ध्यान
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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