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________________ कायोत्सर्ग आवश्यक १३६ : द्रव्य का जैनधर्म में कोई महत्त्व नहीं है । एक आचार्य कहता है कि यह द्रव्य तो एकेन्द्रिय वृदो एवं पर्वतों मे भी मिल सकता है। केवल निःस्पन्द हो जाने में ही साधना का प्राण नहीं है | साधना का प्राण है भाव । भाव कायोत्सर्ग का अर्थ है-पात रौद्र दुर्थ्यानो का त्याग कर धर्म तथा शुक्ल ध्यान मे रमण करना, मन मे शुभ विचारों का प्रवाह वहाना, आत्मा के मूल स्वरूप की ओर गमन करना । कायोत्सर्ग में ध्यान की ही महिमा है | द्रव्य तो ध्यान के लिए भूमिकामात्र हैं। अतएव आचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि मे कहते हैं-'सो पुण काउस्सग्गो दवतो भावतो य भवति, दवतो कायचेट्टानिरोहो, भावतो काउरसग्गो झाणं । और इसी भाव को मुख्यत्व देते हुए उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी अध्ययन में बार-बार कहा गया है कि'काउस्सगं तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ।. कायोत्सर्ग सब दुःखो का क्षय करने वाला है, परन्तु कौन सा ! 'द्रव्य के साथ भाव। __यह कायोत्सर्ग दो' रूप में किया जाता है-एक चेष्टाकायोत्सर्ग तो दूसरा अभिभव कायोत्सर्ग। चेटा कायोत्सर्ग परिमित काल के लिए गमनागमनादि एवं आवश्यक श्रादि के रूप में प्रायश्चित्त स्वरूप होता है। दूसरा अभिभव कायोत्सर्ग यावजीवन के लिए होता है । उपसर्ग विशेष के आने पर यावजीवन के लिए जो सागारी सथारा रूप कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमे यह भावना रहती है कि यदि मै इस उपसर्ग के कारण मर जाऊँ तो मेरा यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए है । यदि.मैं जीवित बच जाऊँ तो उपसर्ग रहने तक कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का दूसरा रूप संस्तारक अर्थात् संथारे का है। यावजीवन के लिए सथारा करते समय जो काय का उत्सर्ग किया जाता । है वह भर चरिम अर्थात् आमरण अनशन के रूप में होता है। संथारे के बहुत-से भेद हैं, जो मूल आगम साहित्य से अथवा आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्यो से जाने जा सकते हैं। प्रथम चेय कायोत्सर्ग, उस अन्तिम
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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