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________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन चोटी पर से फूंक मार कर उडा दे। वह स्तम्भ परमाणुरूप में होकर विश्व में इधर-उधर फैल जाय ! क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई देवता उन परमाणुओं को फिर इकट्ठा कर ले और उन्हें पुनः उसी स्तम्भ के रूप में बदल दे ? यह असंभव, सम्भव है, संभव हो भी जाय । परन्तु मनुष्य जन्म का पाना बड़ा ही दुर्लभ है, दुष्प्राप्य है।" ____ --(अावश्यक नियुक्ति गाथा ८३२) ऊपर के उदाहरण, जैन-सस्कृति के वे उदाहरण है, जो मानवजन्म की दुर्लभता का डिडिमनाद कर रहे हैं । जैन धर्म के अनुसार देव होना उतना दुर्लभ नहीं है, जितना कि मनुष्य होना दुर्लभ है ! जैन साहित्य में आप जहाँ भी कहीं किसी को सम्बोधित होते हुए देखेंगे, वहाँ 'देवाणुप्पिय' शब्द का प्रयोग पायेगे। भगवान् महावीर भी पाने वाले मनुष्यों को इसी 'देवाणुप्पिय' शब्द से सम्बोधित करते थे । 'देवाणुप्पिय' का अर्थ है-"देवानुप्रिय । अर्थात् 'देवताओं को भी प्रिय ।' मनुष्य की श्रेष्ठता कितनी ऊँची भूमिका पर पहुंच रही है । दुर्भाग्य से मानव जाति ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, और वह अपनी श्रेष्ठता को भूल कर अवमानता के दल-दल में फंस गई है । 'मनुष्य ! तू देवताओं से भी ऊँचा है। देवता भी तुझसे प्रम करते हैं। वे भी मनुष्य बनने के लिए आतुर हैं। कितनी विराट प्रेरणा है, मनुण्य की सुप्त यात्मा को जगाने के लिए। जैन संस्कृति का अमर गायक प्राचार्य अमित गति कहता है कि---- 'जिस प्रकार मानव लोक में चक्रवर्ती, स्वर्गलोक में इन्द्र, पशुश्नों में सिंह, प्रतों में प्रशम भाव, और पर्वतों में स्वर्ण गिरि मेरु प्रधान हैश्रेष्ठ है, उसी प्रकार संसार के सब जन्मों में मनुष्य जन्म सर्वश्रेष्ठ है।' नरेषु चक्री त्रिदशेषु वत्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेपु ।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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