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________________ १२६ - आवश्यक दिग्दर्शन करना, प्रतिचरणा है । आचार्य जिनदास कहते हैं-'अत्यादरात्चरणा पडिचरणा कार्य-परिहारः कार्यप्रवृत्तिश्च । (३) परिहरणा-सत्र प्रकार से अशुभ योगों का, दुर्थ्यानों का, दुराचरणों का त्याग करना, परिहरणा है। सयममार्ग पर चलते हुए आसपास अनेक प्रकार के प्रलोभन आते हैं, विप्न आते हैं, यदि साधक परिहरणा न रखे तो ठोकर खा सकता है, पथ भ्रष्ट होसकता है। (४) वारणा-वारणा का अर्थ निषेध है। महासार्थवाह वीतराग देव ने साधकों को विषय भोग रूप विष वृक्षों के पास जाने से रोका है। अतः जो साधक इस निषेधाज्ञा पर चलते हैं, अपने को विषयभोग से बचाकर रखते हैं, वे सकुशल संसार वन को पार कर मोक्षपुरी में पहुंच जाते हैं । 'आत्म निवारणा वारणा । (५) निवृत्ति-अशुभ अर्थात् पापाचरण रूप अकार्य से निवृत्त होना, निवृत्ति है। साधक को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । यदि कभी प्रमाद दशा मे चला भी जाए तो शीघ्र ही अप्रमाद भाव में लौट आना चाहिए। प्राचार्य जिनदास कहते हैं-'असुभभावनियत्तणं नियत्ती । (६) निन्दा-अपने आत्मदेव की साक्षी से ही पूर्वकृत अशुभ श्रोचरणों को बुरा समझना, उसके लिए पश्चात्ताप करना निदा है। पाप को बुरा समझते हो तो चुपचाप क्यों रहते हो? अपने मन में ही उस अशुभ संकल्प एवं अशुभ आचरण को धिक्कार दो, ताकि वह मन का मैल धुलकर साफ हो जाय । साधनाकाल में संसार की ओर से बडी भारी पूजा प्रतिष्ठा मिलती है। इस स्थिति में साधक यदि श्रहंकार के चक्र में पड गया तो सर्वनाश है । अतः साधक को प्रतिदिन विचारना है और अपने आत्मा से कहना है कि-'तू वही नरक तिर्यञ्च आदि कुगति मे भटकने वाला पामर प्राणी है। यह मनुष्य जन्म बडे पुण्योदय से मिला है । और यह सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय का ही प्रताप है कि तू इस उच्च स्थिति में है। देखना, कहीं भटक न जाना ! तू ने अमुक-अमुक
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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