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________________ श्रावश्यक दिग्दशन जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहि । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसास - मेत्तेण ॥ -अज्ञानी एवं असंयमी साधक करोडों वर्षों में तपश्चरण के द्वारा जितने कर्म नष्ट करता है, उतने कर्म त्रिगुप्तिधारी संयमी एवं विवेकी साधक एक साँस लेने भर जैसे अल्प काल में नष्ट कर डालता है। संयम-शून्य तप, तप नहीं होता, वह केवल देह-दण्ड होता है। यह देहदण्ड नारकी जीव भी सागरों तक सहते रहते हैं, परन्तु उनकी कितनी श्रात्मशुद्धि होती है ? भगवती सूत्र के छठे शतक मे प्रश्न है कि 'सातवीं नरक के नैरयिक जीवों के कर्मों की अधिक निर्जरा होती है अथवा संयमी श्रमण निग्रन्थ के कर्मों की ? भगवान् महावीर ने उत्तर में कहा है कि "संयम की साधना करता हुआ श्रमण तपश्चरण आदि के रूप मे थोडासा भी कष्ट सहन करता है तो कमों की वडी भारी निजरा करता है। सूखे घास का गहा अमि में डालते ही कितनी शीघ्रता से भस्म होता है ? श्राग से जलते हुए लोहे के तवे पर जल-बिन्दु किस प्रकार सहसा नाम-शेष हो जाता है ? इसी प्रकार संयम की साधना भी वह जलती हुई अमि है, जिसमें प्रतिक्षण कर्मों के दल के दल सहसा नष्ट होते रहते हैं।" आचार्य हरिभद्र अावश्यक-नियुक्ति पर व्याख्या करते समय तप से पहले संयम के उल्लेख का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि-'संयम , भविष्य में होने वाले कर्मों के प्रास्रव का निरोध करने वाला है, अतः वह मुख्य है । संयम-पूर्वक ही तप वस्तुतः सफल होता है, अन्यथा नही।' 'संयमस्य प्रागुपादानमपूर्वकर्मागमनिरोधोपकारेण प्राधान्यल्यापनार्थम् । तत्पूर्वकं च वस्तुतः सफलं तपः।' संयम और तप के अन्तर को समझने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ। किसी गृहस्थ के घर पर चोरों का आक्रमण होता है। कुछ चोर
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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