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________________ 98 96 जो व्यक्ति आत्मा को प्रात्मा के द्वारा शुभ-अशुभ दो 97 क्रियाओ से रोककर दर्शन-ज्ञान मे ठहरा हुआ (है), और (जो) अन्य मे इच्छा से विरत (होता है), तथा (जो) ममस्त प्रासक्ति से रहित (रहता है), (जो) आत्मा के द्वारा आत्मा का ध्यान करता है तथा अनुपमता (शुद्ध आत्मा) का चिन्तन करता है, किन्तु कर्म और नोकर्म का कभी भी नही, जो दर्शन-ज्ञान से ओतप्रोत (तथा) अनुपम (स्वभाव) से युक्त (होता है), वह (ही) (व्यक्ति) आत्मा का ध्यान करता हुआ कर्मों से रहित आत्मा को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। 99 जैसे वैद्य (आयुर्वेद से सबधित) पुरुष (जिसके द्वारा) विप खाया जाता हुआ (है), (विष-नाशक प्रक्रिया करने के कारण) मरण को प्राप्त नही होता है, वैसे ही (जो) ज्ञानी पुद्गल कर्म के उदय को (अनासक्तिपूर्वक) भोगता है (वह) (कर्मों से) नही बाँधा जाता है । 100 (सुखो के लिए वस्तुप्रो को) उपयोग मे लाते हुए भी (अनासक्ति के कारण) कोई (व्यक्ति) (तो) (उन पर) आश्रित नही होता है (और परम शान्ति प्राप्त कर लेता है), (किन्तु) (उनको) उपयोग मे न लाते हुए भी (कोई) (व्यक्ति) (आसक्ति के कारण) (उन पर) आश्रित (रहता है) (और) (परम शान्ति प्राप्त नही कर पाता है) । (ठीक ही है) किसी के लिए (किए गए) श्रेष्ठ कार्य के प्रयास के कारण भी (आसक्ति के कारण) वह (कोई) (व्यक्ति) (उस) श्रेष्ठ कार्य से (दृढ रूप से) सबधित नही होता है। (अत. कहा जा सकता है कि आसक्ति के कारण ही वस्तुओ से सबध जुडता है, जीव के कर्म-बन्धन होता है और उसमे अशान्ति पैदा होती है)। चयनिका 35 ]
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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