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________________ सम्यक्चारित्र (स्वतन्त्रता मे रमण) को आराधना करनी चाहिए (155, 157)। दूसरे शब्दो मे, वेप के आग्रह को त्यागकर व्यक्ति मोक्ष (स्वतन्त्रता) के पथ मे प्रात्मा को स्थापित करे, उसका ही ध्यान करे, उसका ही अनुभव करे और वहाँ ही सदा रहे (158) । जो लोग बहुत प्रकार के साधु-वेपो मे तथा गृहस्थ-वेषो मे ममत्व करते हैं, वे समयसार (प्रात्मानुभव/स्वतन्त्रता के अनुभव) से अनभिज्ञ है (159)। समयसार का शिक्षण है कि व्यवहारनय दोनो ही वेषो को स्वतन्त्रता की साधना मे उपयुक्त मानता है, किन्तु निश्चयनय किसी भी वेप को स्वतन्त्रता की साधना मे स्वीकृति प्रदान नहीं करता है (160) । पूर्णता का अनुभव उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ममयसार निश्चयनय और व्यवहारनय से विपय का प्रतिपादन करता है। निश्चयनय चेतना को स्वतन्त्रता से उत्पन्न दृष्टि है, और व्यवहारनय चेतना की परतन्त्रता से उत्पन्न दृष्टि है । ये दोनो ही बौद्धिक दृष्टियाँ हैं। किन्तु पूर्णता का अनुभव नयातीत है (60, 70) । वह बुद्धि से परे है। इसी अनुभव को हम जब दूसरो तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं, तो नयो का सहारा लेना पड़ता है। इसके अलावा हमारे पास कोई रास्ता भी तो नहीं है। इस रास्ते पर चलने से अनुभव की समग्रता खो जाती है, और वह खण्ड-खण्ड रूप में सामाजिक बन जाती है। सच तो यह है कि आत्मा (स्वतन्त्रता) मे स्थिर व्यक्ति दोनो नयो के कथनो को केवल जानता है । वह थोडी भी नयदृष्टि को ग्रहण नहीं करता है (69) | निस्सन्देह बुद्धि महत्वपूर्ण होती है, पर उसका महत्व सीमित रहता है। अनुभव के समक्ष वह निस्तेज बन जाती है। नयात्मक दृष्टि बुद्धि का कौशल है । चयनिका [ XXV
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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