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________________ श्राश्रय के बिना स्वतन्त्रतारूपी सर्वोच्च सत्य की समझ सभव नही है ( 3 ) । जव व्यवहारिनय यह कहता है कि चेतन आत्मा और पुद्गलात्मक देह अभिन्न हैं, तो उन दोनो को अभिन्न समझने के कारणो का और श्रभिन्नता से उत्पन्न परिणामो का विश्लेषण करने से व्यवहारनय की सीमाओ का ज्ञान व्यक्ति को हो जाता है । इन सीमाओ के ज्ञान से व्यक्ति आत्मा की स्वतन्त्रता की ओर देखने लगता है और उसमे निश्चय-दृष्टि उत्पन्न होती है तथा श्रात्मा और देह की भिन्नता का ज्ञान उदित होता है (13) सीमित को सीमित समझने से असीमित की श्रोर प्रस्थान होता है । इसी प्रकार व्यवहार को व्यवहार समझने से निश्चय की ओर गमन होता है । व्यवहार द्वारा उपदिष्ट आत्मा और देह की एकता को जो यथार्थ मानता है, वह अज्ञानी है और जो उसे यथार्थ मानता है, वही - ज्ञानी है (10, 11, 12) | चूँकि देह पर है, इसलिए केवली (समतावान ) के देह की स्तुति करना भी निश्चय-दृष्टि से उपयुक्त नही है । जो समतावान के श्रात्मानुभव की विशेषताओ की स्तुति करता है, वह हो निश्चयदृष्टि से स्तुति करता है (14) ठीक ही है, जैसे नगर का वर्णन कर देने से राजा का वर्णन नही होता है, वैसे ही देह की विशेषताओ की स्तुति कर लेने से शुद्ध आत्मारूपी राजा की स्तुति नही हो पाती है (15) 1 अंत समयसार का शिक्षण है कि जैसे: कोई' भी घने का इच्छुक मनुष्य राजा को जानकर उस पर श्रद्धा करता है और तब उसका बैंडी सावधानीपूर्वक अनुसरण करता है, वैसे ही परम शान्ति के इच्छुक मनुष्य के द्वारा श्रात्मारूपी राजा समझा जाना चाहिएतथा श्रद्धा किया जाना चाहिए और फिर निस्सन्देह वह ही अनुसरण किया जाना चाहिए ( 8, 9 ) 71, ī ना एक ए TE - ~~~ √1] * समयसा
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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