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________________ शिक्षण है कि परतन्त्रता की लबी यात्रा यद्यपि व्यक्ति कर चुका है, फिर भी परतन्त्रता के विद्यमान कारण आत्मा की स्वतन्त्रता का हरण किंचित मात्र भी नही कर सकते हैं। स्वतन्त्रता आत्मा का स्वभाव है, परतन्त्रता कारणो के द्वारा थोपी हुई है। सच यह है कि इन कारणो को व्यक्ति इतना दृढता से पकडे हुए है कि परतन्त्रता स्वाभाविक प्रतीत होती है, किन्तु मानसिक तनाव की उत्पत्ति इस स्वाभाविकता के लिए चुनौती है। आत्मा की स्वतन्त्रता और मानसिक तनाव की उत्पत्ति एक दूसरे के विरोधी हैं। जहाँ आत्मा की स्वतन्त्रता है, वहाँ तनाव-मुक्ति है, वहाँ ही समतामय जीवन है। जहाँ आत्मा की परतन्त्रता है, वहां मानसिक तनाव है, वहाँ ही द्वन्द्वात्मक जीवन है । चेतन अस्तित्व (आत्मा) को स्वतन्त्र समझने की दृष्टि निश्चयनय है और उसको परतन्त्र मानने की दृष्टि व्यवहारनय है। जब आत्मा की (पर से) स्वतन्त्रता स्वाभाविक है, तो आत्मा की परतन्त्रता अस्वाभाविक है। इसीलिए कहा गया है कि निश्चयनय (शुद्धनय) वास्तविक है और व्यवहारनय अवास्तविक है (4)। ठीक हो है, जो दृष्टि स्वतन्त्रता का बोध कराये वह दृष्टि वास्तविक ही होगी और जो दृष्टि परतन्त्रता के आधार से निर्मित हो, वह अवास्तविक ही रहेगी। समयसार का कथन है कि जो दृष्टि आत्मा को स्थायी, अनुपम, कर्मों के बन्ध से रहित, रागादि से न छुपा हुआ, अन्य से अमिश्रित देखती है, वह निश्चयनयात्मक दृष्टि है (6, 7)। इतना होते हुए भी परतन्त्रता का जीवन जीनेवाले को व्यवहारनय के माध्यम से ही समझाया जा सकता है (२)। एक एक करके परतन्त्रता के कारणो का विश्लेषण अप्रत्यक्ष रूप से प्रात्मा की स्वतन्त्रता की यशोगाथा है। इसीलिए कहा गया है कि व्यवहारनय के चयनिका [ v
SR No.010711
Book TitleSamaysara Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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