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________________ [८६ (पूर्णरूप से त्यागमय जीवन यापन करने वाले भोगोपभोग की सामग्री से विमुख ही रहते हैं।) भोगोपभोग की वस्तुएँ दो कोटि की होती हैं (१) निर्जीव भोग्य और उपभोग्य पदार्थ, और .. (२) सजीव जैसे हाथी, घोड़ा, फूलमाला; आदि । यद्यपि पूर्ण त्यागी को भी जीवन निर्वाह के लिए भोगोपभोग की वस्तुओं का ग्रहण और उपयोग करना पड़ता है, तथापि वह उनके उपयोग में आनन्द या शौक नहीं समझता । वह उन्हें जीवन यापन का अनिवार्य साधन समझ कर ही काम में लाता है । आसन, वसन, अशन आदि उसके लिए उपभोग्य नही वरन् जीवन निर्वाह के साधन मात्र होते हैं । . भावना में यदि अनासक्ति है तो कोई भी जीवन निर्वाह का साधन भोग या परिग्रह नहीं बनता। आसक्ति होने पर सभी पदार्थ परिग्रह हो जाते हैं । स्थूलभद्र ने वेश्यालय में चार मास व्यतीत किए किन्तु परिपूर्ण अनासक्ति के कारण वे बेदाग रहे । संभूतिविजय ने तीन मुनियों को धन्यवाद दिया, और स्थूलभद्र ने काम-विजय कर जो सिद्धि पाई, उसके लिए उन्होंने 'दुष्करम् अति दुष्करम्' कह कर अपना प्रमोद प्रकट किया। कामना-विजय को महत्व देना गुरु महाराज का लक्ष्य था और उसे महत्व देना उचित तो था ही किन्तु अन्य मुनियों को लगा कि गुरुजी ने पक्षपात किया है । वे सोचने लगे कि वे वेश्या के घर में रह कर चार मास व्यतीत कर लेना कौन बड़ी बात है! इसमें 'अति दुष्कर' क्या है ! . 'वक्त्रं वक्ति हि मानसम्' इस कहावत का अर्थ यह है कि मनुष्य का चेहरा ही उसके मन की बात प्रकट कर देता है । भावभंगी को देख कर दूसरे के हृदय की थाह ली जा सकती है । अपने अन्य शिष्यों के चेहरे को देख कर विचक्षण गुरु भाँप गए कि इन्हें मेरे निर्णय से सन्तोष नहीं है। मगर उन्होंने सोचा-अभी इस सम्बन्ध में ऊहापोह करने का अवसर नहीं है । उपयुक्त अवसर आने पर इन्हें समझाना होगा। . . .
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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