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________________ ८८ ] पटाते देखते हैं, यह सब उनके पाप कर्म का ही प्रतिफल है । अगर इस तथ्य को मानव भलीभांति समझ ले तो भोगोपभोगों के पीछे न पड़ कर बहुत-से पापों से बच सकेगा। .. . ... ... .. .. . . हिंसा को सहन करने वाला और उसमें सहयोग देने वाला भी हिंसा के फल का भागी होता है । प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बलि प्रथा को सहकार देना महान् पातक है । जिन कार्यों से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता हो और जिन स्थानों में हिंसा होती हो और जो कर्मबन्ध के कारण हों उनके साथ असंहयोग करना चाहिए । ऐसा करने से दो लाभ होंगे-अज्ञानवश ऐसे दुष्कर्म करने वालों का हृदय-परिवर्तन होगा और स्वयं को पाप से बचाया जा सकेगा । अज्ञानी जनों को सही राह न बतलाना भी अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ना है । पुण्य योग से जिसे विचार और विवेक प्राप्त हुआ है जिसने धर्म के समीचीन स्वरूप को समझा है और जिसे धर्म के प्रसार करने की लगन है, उसका यह परम कर्तव्य है कि वह अज्ञानी जनों को सन्मार्ग दिखलाए । इस दिशा में अपने कर्तव्य का अवश्य पालन करना चाहिए ।यह धर्म की बड़ी से बड़ी प्रभावना है। भोगोपभोग की सामग्री परिग्रह है और उसकी वृद्धि परिग्रह की ही। वृद्धि है । परिग्रह की वृद्धि से हिंसा की वृद्धि होती है और हिंसा की वृद्धि से पाप की वृद्धि होती है । साधारण स्थिति का आदमी भी दूसरों की देखा देखी उत्तम वस्तुएं रखना चाहता है। उसे सुन्दर और मूल्यवान फर्नीचर चाहिए, चांदी के वर्तन चाहिए, पानदान चाहिए, मोटर चाहिए । और पड़ौसी के यहाँ जो कुछ अच्छा है सब चाहिए । जब सामान्य न्याय संगत प्रयास से वे नहीं प्राप्त होते तो उनके लिए अनीति और अधर्म का का आश्रय लिया जाता है। अतएव मनुष्य के लिए यही उचित है कि वह अल्प-सन्तोपी हो अर्थात् सहज भाव मे जो साधन उपलब्ध हो जाय, उनसे ही अपना निर्वाह कर ले और शान्ति के साथ जीवत यापन करे । ऐसा करने से वह अनेक पापों से बच जायगा और उसका भविष्य उज्ज्वल बनेगा।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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