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________________ [७६ बचने की सावधानी रखता है और ऐसा प्रयत्न करता है कि उसका व्रत सर्वथा निर्दोष रहे, फिर भी भूल-चूक हो जाना स्वाभाविक है । ऐसी स्थिति में अगर व्रत दूषित हो जाता है मगर दूषित करने की इच्छा नहीं होती तो उसे वत का प्रांशिक विराधन ही समझा जाता है। . .. वस्तुतः साधक का दृष्टिकोण पापों पर विजय प्राप्त करना है, जिन्होंने प्रत्येक संसारी जीव को अनादिकाल से अपने चंगुल में फंसा रवखा है । . जे तू जीत्योरे ते हं जीतियो, पुरुष किसू मुझ नाम, प्रभु के चरणों में आत्मनिवेदन का ढंग निराला होता है। अध्यात्म भावना के रंग में रंगा हुआ साधक अपनी आन्तरिक निर्बलता का अनुभव करता है और उस पर विजय प्राप्त कर लेता है। उपर्युक्त पद्य में भक्त ने निवेदन किया है-प्रभो ! जिन काम क्रोध आदि विकारों को आपने पराजित कर दिया, उन विकारों ने मुझे पराजित कर रखा हैं ! कैसे मैं मर्द होने का दावा करूँ ! हारे हुए से हारना मर्दानगी नहीं, नपुंसकता है। यह भक्त के निवेदन की एक विशिष्ट शैली हैं। इसमें प्रथम तो वह अपने विकारों पर विजय प्राप्त करने की उत्सुकता प्रकट करता है, दूसरे अपने असामर्थ्य के प्रति असन्तोष भी व्यक्त करता हैं। ... विकारों पर विजय प्राप्त करने की साधना दो प्रकार की हैं-द्रव्य साधना और भावसाधना । दोनों साधनाएं एक दूसरी से निरपेक्ष होकर नहीं चल सकतीं, परस्पर सापेक्ष ही होती हैं। जब अन्तरंग में भावसाधना होती है तो बाह्य चेष्टाओं, क्रियाओं के रूप में वह व्यक्त हुए बिना नहीं रह सकती। अन्तरतर के भाव वाह्य व्यवहार में छलक ही पड़ते हैं । बल्कि : य तो यह है कि मनुष्य की वाह्य क्रियाएं उसकी आन्तरिक भावना का प्रायः दृश्यमान रूप हैं । हृदय में अहिंसा एवं करुणा की वृत्ति बलवती होगी तो जीवन रक्षा रूप वाह्य प्रवृत्ति स्वतः होगी। ऐसा मनुष्य किसी प्राणी को कष्ट नहीं देगा और . किसी को कष्ट में देखेगा तो उसे कष्ट मुक्त करने का प्रयत्न करेगा । इस प्रकार
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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