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________________ [ ३६६ प्रभु महावीर का निमित्त पाकर ग्रानन्द का उपादान जागृत हो गया । जब साधक की मानसिक निष्ठा स्थिर हो जाती है तो वह अपने को व्रतादिक सावना में स्थिर बना लेता है । किन्तु साधना के क्षेत्र में देव और गुरु के प्रति श्रद्धा की परम आवश्यकता है जिसको हम देव और गुरु के रूप में स्वीकार करना चाहें, पहले उनको परीक्षा कर लें। जो कसौटी पर खरा उतरे उससे अपने जीवन में प्रेरणा ग्रहण करें । इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरों के प्रति किसी प्रकार की द्वेष भावना रक्खी जाय । साधक भूतमात्र के प्रति मैत्री भाव रखता है परन्तु जहाँ तक वन्दनीय का प्रश्न है, जिसने अध्यात्ममार्ग में जितनी उन्नति की है, उसी के अनुरूप वह वन्दनीय होगा । गुरु के रूप में वही वन्दनीय होते हैं, जिन्होंने सर्व प्रारंभ और सर्व परिग्रह का त्याग कर दिया हो योर जिनके अन्तर में संयम की ज्योति प्रदीप्त हो । जिन्होंने किसी भी पंथ या परंपरा के साधु का वाना पहना हो परन्तु जो संयम हीन हों वे वन्दनीय नहीं होते । जिसका श्रात्मा मिथ्यात्व के मेल से मलीन है और चित्त कामनाओं से ग्राकुल उसको सच्चा श्रावक वन्दनीय नहीं मान सकता । खाने-पीने की सुविधा और मान-सम्मान के लोभ से कई साधु का वेष धारण कर लेते हैं पर उतने मात्र से ही वे वन्दना के योग्य नहीं होते हैं । 4/ इसी प्रकार जिसमें अठारह दोष विद्यमान नहीं हैं, जो पूर्ण वीतराग, निष्काम, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी परमात्मा है, वही देव के रूप में स्वीकरणीय, वन्दनीय और महनीय है। जिनमें राग, द्वेष, काम आदि विकार मौजूद हैं, वे ग्रात्मार्थी साधक के लिए कैसे वन्दनीय हो सकते हैं ? राग-द्वेष आदि विकार ही समस्त संकटों, कष्टों ग्रौर दुःखों के मूल हैं। इन्हें नष्ट करने के लिए ही साधना की जाती है। ऐसी स्थिति में साधना का आदर्श जिस व्यक्ति को बनाया वह स्वयं इन विकारों से युक्त हो तो उससे हमारी साधना को कैसे प्रेरणा मिलेगी ? :: ܝܘܐ ܚܝܩ 1470: 11 कोई किसी में देवत्व का प्रारोप भले करले, कलम और तलवार की नहीं पा सकते। यह पूजा तो fr या प्रवाह के कारण अथवा पूजा भले कर ली जाय, परन्तु वे देव की पदवी कोरा व्यवहार है । अगर कोई व्यक्ति परम्परा 42
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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